ANMOL BHENT by Rabindranath Tagore.

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रायचरण जब बारह साल का था तब से बच्चे की देखभाल करने का काम करने लगा था। उसके बाद काफी समय बीत गया। नन्हा बच्चा रायचरण की गोद से निकलकर स्कूल जाने लगा, स्कूल से कॉलेज में पहुँचा, फिर एक सरकारी जगह पर काम में लग गया। लेकिन रायचरण अब भी बच्चा खिलाता था, यह बच्चा उसकी गोद के पाले हुए बच्चे अनुकूल बाबू का बेटा था।

बच्चा घुटनों के बल चलकर बाहर निकल जाता। जब रायचरण दौड़कर उसे पकड़ता तो वह रोता और अपने नन्हे-नन्हे हाथों से रायचरण को मारता। रामचरण हंसकर कहता- “हमारा भैया भी बड़ा होकर जज साहब बनेगा”- जब वह रायचरण को चन्ना कहकर पुकारता तो उसका दिल खुशी से भर जाता ।

वह दोनों हाथ जमीन पर टेककरण र घोड़ा बनता और बच्चा उसकी पीठ पर सवार हो जाता। इन्हीं दिनों अनुकूल बाबू का ट्रांसफर परयां नदी के किनारे एक जिले में हो गया। नए जगह की ओर जाते हुए कलकत्ते से उन्होंने अपने बच्चे के लिए कीमती गहने और कपड़ों के अलावा एक छोटी-सी सुन्दर गाड़ी भी खरीदी।

बारिश का मौसम था । कई दिनों से मूसलाधार बारिश हो रही थी।भगवान्-भगवान् करते हुए बादल फटे। शाम का समय घा। बच्चे ने बाहर जाने के लिए ज़िद की। रामचरण उसे गाड़ी में बिठाकर बाहर ले गया। खेतों में पानी सखूब भरा हुआ था। बच्चे फूलों का गुच्छा देखकर जिद की, रायचरण ने बच्चे ने उसे बहलाना चाहा लेकिन वह न माना। मजबूर रामचरण बच्चे का मन रखने के लिए घुटनों-घटनों पानी में फूल तोड़ने लगा।

कई जगहों पर उसके पांव कीचड़ में बुरी तरह धंस गये। बच्चा थोड़ी देर चुपचाप गाड़ी में बैठा रहा, फिर उसका ध्यान लहराती हुई नदी की ओर गया।

वह चुपके से गाड़ी से उतरा। पास ही एक लकड़ी पड़ी थी, उसे उठाई और भयानक नदी के किनारे पर पहुंचकर उसकी लहरों से खेलने लगा। नदी के शोर में ऐसा लग रहा था कि नदी की चंचल और बातूनी जल-परिया सुन्दर बच्चे को अपने साथ खेलने के लिए बुला रही हैं। रायचरण फूल लेकर वापस आया तो देखा गाड़ी खाली है। उसने इथर-उधर देखा, उसके पैरों के नीचे से ज़मीन निकल गई। वो पागलों की तरह चारों ओर देखने लगा। वह बार-बार बच्चे का नाम लेकर पुकारता लेकिन जवाब में चना की मधुर आवाज़ न आती।

चारों ओर अंधेरा छा गया। बच्चे की माँ को चिन्ता होने लगी। उसने चारों ओर आदमी दौड़ायें। कुछ लोग लालटेन लिये हुए नदी के किनारे खोज करने पहुंचे। रायचरण उन्हें देखकर उनके पैरों में गिर पड़ा। उन्होंने उससे सवाल करन शुरू किया लेकिन वह हर सवाल जवाब में यही कहता-“मुझे कुछ नहीं मालूम”।

शायद हर आदमी का यही मानना था कि छोटे बच्चे को परयां नदी ने अपने आंचल में छिपा लिया है लेकिन फिर भी दिल में तरह-तरह की शंकायें पैदा हो रही थीं। एक यह कि उसी शाम को नगर से निकाले गए लोगों का एक समूह नगर से गया था और मां को शक था कि रायचरण ने कहीं बच्चे को उनके हाथों न बेच दिया हो। वह रायचरण को अलग ले गई और उससे विनती करते हुए कहने लगी-“रायचरण, तुम मुझसे जितना रुपया चाहो ले लो, लेकिन भगवान के लिए मेरी दशा पर तरस खाकर मेरा बच्चा मुझे वापस कर दो”।

जवाब न दे सका, सिर्फ माथे पर हाथ मारकर चुप हो गया। रायचरण कुछ जवाब मालकिन ने गुस्से की दशा में उसे घर निकाल दिया। ए-से बाहर

। अनुकूल बाबू ने पत्नी को बहुत समझाया लेकिन माँ के दिल से शक दूर न हुआ । वह बराबर यही कहती रही कि- “मेरा बच्चा सोने के गहने पहने हुए था, जरूर इसने…” रायचरण अपने गांव वापस चला आया। उसके कोई औलाद न थी और न ही बच्चा होने की कोई सम्भावना थी। लेकिन साल खत्म होने पर उसके घर बेटे ने जन्म लिया: लेकिन पत्नी बच्चे को जन्म देने के बाद मर गई। घर में एक विधवा बहन थी। उसने बच्चे की परवरिश का भार अपने ऊपर लिया।

जब बच्चा घुटनों के बल चलने लगा, वह घर वालों की नजर बचा कर बाहर निकल जाता। रायचरण जब उसे दौड़कर पकड़ता तो वह चंचलता से उसे मारता। उस समय रायचरण की आँखों के सामने अपने उस नन्हें मालिक की सूरत फिर जाती परयां नदी की लहरों में गायब हो गया था।

बच्चे की जबान खुली तो वह बाप को बाबा और बुआ को ‘मामा इस ढंग से कहता जिस ढंग से रायचरण का नन्हा मालिक बोलता था। रायचरण उसकी आवाज से चौक उठता। उसे पूरा विश्वास था कि उसके मालिक ने उसके घर में जन्म लिया है।

इस ख़याल को साबित करने के लिए उसके पास तीन सबूत थे। एक तो यह कि वह नन्हे मालिक की मौत के थोड़े ही समय बाद पैदा हुआ था । दूसरे यह कि उसकी पत्नी बूढ़ी हो गई थी और बच्चे के जन्म की कोई आशा न थी। तीसरे यह कि बच्चे के बोलने का ढंग और उसके सारे हाव भाव नन्हे मालिक से मिलते-जुलते थे।

वह हर समय बच्चे की देख-भाल में जुटा रहता। उसे डर था कि उसका नन्हा मालिक फिर कहीं गायब न हो जाए। यह बच्चे के लिए एक गाड़ी लाया और अपनी पत्नी के गहने बेचकर बच्चे के लिए गहने बनवा दिये। वह उसे गाड़ी में बिठाकर हर रोज़ बाहर की लाज़ी हवा में ले जाता।

धीरे-धीरे दिन बीतते गये और बच्चा बड़ा हो गया। लेकिन इस लाड़-चाव में वह बहुत बिगड़ गया था। किसी से सीधे मुंह बात न करता। गांव के लड़के जब लड़का पढ़ने लिखने लायक हुआ तो रायचरण अपनी छोटी-सी जमीन बेचकर कलकत्ता आ गया। उसने दौड़-धूप करके नौकरी खोजी और फलन को स्कूल में दाखिल करवा दिया। उसे पूरा विश्वास था कि बड़ा होकर फलन ज़रूर जज बनेगा।

उसे लाट साहब कहकर छेड़ते।

समय बीतते बीतते अब फलन की उम्र बारह साल हो गई। अब वह खूब लिख-पढ़ सकता था। उसका स्वास्थ्य अच्छा और सूरत-शक्ल भी अच्छी थी।

उसे सज संवर कर अच्छे से रहने की भी बड़ी चिन्ता रहती थी। जब देखो दर्पण हाथ में लिये बाल बनाता रहता।

वह बहुत खर्चीला भी था। पिता के सारी कमाई बेकार की ऐयाशी के सामान में बर्बाद कर देता। रायचरण उससे प्रेम तो पिता की तरह करता था, लेकिन अक्सर उसका बर्ताव उस लड़के से ऐसा ही था जैसे मालिक के साथ नौकर का होता है। उसका फलन भी उसे पिता न समझता था। दूसरी बात यह थी कि रायचरण खुद को फलन का पिता जताता भी न था। बोर्डिंग हाउस के बच्चे रायचरण के गंवारपन का मजाक उड़ाते और फलन भी उन्हीं के साथ मिल जाता।

रायचरण को जमीन बेचकर जो कुछ रुपया मिला था वह अब लगभग सारा ख़त्म हो चुका था। उसका मामूली वेतन फलन के खर्चों के लिए कम था।

वह अक्सर अपने पिता से जेब-खर्च और अच्छे-अच्छे कपड़ों के लिए झगड़ता रहता था। आखिर एक तरकीब रायचरण के दिमाग में आई. उसने नौकरी छोड़ दी और उसके पास जो कुछ बचा हुआ रुपया था फलन को सौंपकर बोला- “फलन, में एक ज़रूरी काम से गांव जा रहा हूं, बहुत जल्द वापस आ जाऊंगा। तुम किसी बात से घबराना नहीं।

रायचरण सीधा उस जगह पर पहुंचा जहां अनुकूल बाबू जज के ओहदे पर लगे हुए धे। उनके और कोई दूसरी संतान न थी इस कारण उनकी पत्नी हर समय चिन्तित रहती थी।

अनुकूल बाबू कोर्ट से वापस आकर कुर्सी पर बैठे हुए थे और उनकी पत्नी बच्चे के जन्म के लिए बाज़ार में दवा बेचने वाले से जड़ी-बूटियां खरीद रही भी।

काफी दिनों के बाद वह अपने बूढ़े नौकर रायचरण को देखकर आश्चर्यचकित हो गई, पुरानी सेवाओं का विचार करके उसे रामचरण पर तरस आ गया और उससे पूछा- क्या तुम फिर नौकरी करना चाहते हो?”

रायचरण ने मुस्कराकर जवाब दिया- “मैं अपनी मालकिन के पैर छूना चाहता हूं। अनुकूल बाबू रायचरण की आवाज सुनकर कमरे से निकल आये। रायचरण की शक्ल देखकर उनके मन का जख्म ताजा हो गया और उन्होंने चेहरा फेर र लिया।

रायचरण ने अनुकूल बाबू को देखते हुए कहा- “सरकार, आपके बच्चे को परयां ने नहीं, बल्कि मैंने चुराया था। अनुकूल बाबू ने आश्चर्य से कहा- “तुम यह क्या कह रहे हो, क्या मेरा बच्चा सच में जिन्दा है?”

उसकी पत्नी ने उछलकर कहा- “भगवान के लिए बताओ मेरा बच्चा कहा है?”

रायचरण ने कहा- “आप सन्तोष रखें, आपका बच्चा इस समय भी मेरे पास है”। अनुकूल बाबू की पत्नी ने रायचरण से बहुत विनती करते हुए कहा- “मुझे बताओ”।

रायचरण ने कहा- उसे परसों ले आऊंगा।

रविवार का दिन था। जज साहब अपने मकान में बेचैनी से रायचरण का इंतज़ार कर रहे थे। कभी वह कमरे में इधर-उधर टहलने लगते और कभी थोड़े समय के लिए आराम-कुर्सी पर बैठ जाते। आखिर दस बजे के लगभग रायचरण फलन का हाथ पकड़े हुए कमरे में आया।

अनुकूल बाबू की पत्नी फलन को देखते ही दीवानों की तरह उसकी ओर लपकी और उसे बड़े जोर से गले लगा लिया। उनकी आँखों से आंसुओं का समुद्र उमड़ पड़ा। कभी वह उसे प्यार करती, कभी आश्चर्य से उसकी सुरत देखने लग जाती। फलन सुन्दर था और उसके कपड़े भी अच्छे थे। अनुकूल बाबू के दिल में भी बेटे के प्रेम की भावना पैदा हुई लेकिन जरा-सी देर के बार उनके पिता के -प्रेम की जगह कानून भावना ने ले ली और उन्होंने रायचरण से पूछा-“भला इसका सबूत क्या है कि यह बच्चा मेरा है? रायचरण ने जवाब दिया- “इसका जवाब मैं क्या टूं सरकार! इस बात का ज्ञान तो भगवान् के सिवाय और किसी को नहीं हो सकता कि मैंने ही आपका बच्चा चुराया था”

जब अनुकूल बाबू ने देखा कि उनकी पत्नी फलन को कलेजे से लगाये हुए है तो सबूत मांगना बेकार है। इसके अलावा उन्हें ध्यान आया कि इस गंवार को ऐसा सुन्दर बच्चा कहां मिल सकता था और झूठ बोलने से क्या फ़ायदा हो सकता है।

अचानक उन्हें अपने बूढ़े नौकर की लापरवाही ही याद आ गई और कानूनी हाव भाव में बोले-“रायचरण, अब तुम यहां नहीं रह सकते। रायचरण ने ठंडी सांस भरकर कहा-“सरकार, अब मैं कहां जाऊं। बुढ़ा हो गया हूं, अब मुझे कोई नौकर भी न रखेगा। भगवान के लिए अपने दरवाजे पर पड़ा रहने दीजिये”।

अनुकूल बाबू की पत्नी बोली- “रहने दो, हमारा क्या नुकसान है? हमारा बच्चा भी इसे देखकर खुश रहेगा।

मगर अनुकूल बाबू की कानूनी नस भड़की हुई थी। उन्होंने तुरन्त जवाब दिया-“नहीं, इसका अपराध बिल्कुल माफ़ नहीं किया जा सकता”। रायचरण ने अनुकूल बाबू के पांव पकड़ते हुए कहा- “सरकार, मुझे न निकालिए, मैंने आपका बच्चा नहीं चुराया था बल्कि भगवान ने चुराया था। अनुकूल बाबू को गंवार की इस बात पर और भी ज़्यादा गुस्सा आ गया। बोले-“नहीं, अब मैं तुम पर विश्वास नहीं कर सकता। तुमने मेरे साथ विश्वासघात किया है।

रायचरण ने फिर कहा- “सरकार, मेरा कुछ अपराध नहीं”। अनुकूल बाबू तेवर के साथ कहने लगे- “तो फिर किसका अपराध है?”

रायचरण ने कहा – “मेरे भाग्य का”। लेकिन पढ़ा लिखा आदमी भाग्य के अस्तित्व को स्वीकार नहीं कर सकता।

फलन को जब मालूम हुआ कि वह असल में एक अमीर आदमी का बेटा है तो उसे भी रायचरण की इस कोशिश पर गुस्सा आया, कि उसने इतने दिनों तक क्यों उसे इतनी तकलीफ़ में रखा। फिर रायचरण को देखकर उसे दया भी आ गई और उसने अनुकूल बाबू से कहा- “पिताजी, इन्हें माफ़ कर दीजिए। अगर आप इन्हें अपने साथ नहीं रखना चाहते तो इन्हें थोड़ी पेंशन दे दें।

इतना सुनने के बाद रायचरण अपने बेटे को आखरी बार देखकर अनुकूल बाबू की कोठी से निकलकर चुपचाप कहीं चला गया। महीना खत्म होने पर अनुकूल बाबू ने रायचरण के गाव कुछ रूपए भेजे लेकिन मनी आर्डर वापस आ गया क्योंकि गांव में अब इस नाम का कोई आदमी न शा। सीख – इस कहानी में रबिन्द्रनाथ जी ने एक दुर्घटना की वजह से कैसे कई जिंदगियां बदल जाती हैं उसका बड़ा ही दुखद चित्रण किया है. रायचरण एक वफ़ादार सेवक था और उसे अपने मालिक और उनके बच्चे दोनों से बहुत प्रेम था लेकिन उसकी लापरवाही से जो हादसा हुआ था इससे उसका मन ग्लानी से भर गया था. उसे इस बात का इतना गहरा सदमा लगा कि वो अपने बेटे तक को उनकी अमानत समझने लगा था. कहीं ना कहीं उसके मन में ये बात थी कि उनका इकलौता बच्चा उसकी वजह से छिन गया था. उसने अपनी गलती का प्रायश्चित उन्हें अपना बेटा भेंट करके किया. अंत में उसे दुःख सिर्फ इस बात का था कि जिस मालिक और बेटे फलन से उसे इतना लगाव था दोनों ने उसका विश्वास नहीं किया जिससे उसकी सारी उम्मीद खत्म हो गई इसलिए अपने बेटे को उन्हें सौंपकर कर वो हमेशा के लिए उनकी जिंदगी से दूर चला गया. कितने दुःख की बात है कि उसके इतने बड़े त्याग और अनमोल भेंट से सब लोग अनजान रह गए और उसे दोषी समझते रहें.

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