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आदमियों और औरतों में बड़ा अन्तर है, तुम लोगों का दिल काँच की तरह कड़ा होता है और हमारा दिल नरम, वह जुदाई का दर्द नहीं सह सकता। काँच चोट लगते ही टूट जाता है। नरम चीजों में लचक होती है।
चलो, बातें न बनाओ। दिन-भर तुम्हारा रास्ता दे, रात-भर घड़ी की सुइयाँ, तब कहीं आपके दर्शन होते हैं।
मैं तो हमेशा तुम्हें अपने दिल में छिपाए रखता हूँ। ठीक बतलाओ, कब आओगे?’
बजे, लेकिन पिछला दरवाजा खुला रखना। ग्यारह
उसे मेरी आँखें समझो। अच्छा, तो अब चलता हु।
पंडित केलाशनाथ थ लखनऊ के जाने माने बैरिस्टरों में से थे कई सभाओं के मंत्री, कई समितियों के सभापति, पत्रों में अच्छे-अच्छे लेख लिखते, प्लेटफार्म पर शिक्षा देने वाला भाषण देते। पहले-पहले जब वह यूरोप से लौटे थे, तो यह उत्साह अपनी पूरी मौज़ पर था; लेकिन जैसे-जैसे बैरिस्टरी चमकने लगी, इस उत्साह में कमी आने लगी और यह ठीक भी था, क्योंकि अब बेकार न थे जो समय बर्बाद करते। हाँ, क्रिकेट का शौक अब जैसे का तैसा बना था।
क्लब के संस्थापक और क्रिकेट के मशहूर खिलाड़ी थे। वह कैसर अगर मि. कैलाश को क्रिकेट की धुन थी, तो उनकी बहन कामिनी को टेनिस का शौक था। इन्हें रोज नए मन बहलाने की चीजों की चाह रहती थी। शहर पुन १ में कहीं नाटक हो, कोई थियेटर आये, कोई सर्कस, कोई बायसकोप हो, कामिनी उनमें न शामिल हो, यह नामुमकिन बात थी। मन बहलाने की कोई चीज उसके लिए उतनी ही जरूरी थी, जितना हवा और रोशनी।
मि. कैलाश पश्चिमी सभ्यता (कल्चर) के असर में बहने वाले अपने दूसरे साथियों की तरह हिंदू जाति, हिंदू सभ्यता, हिंदी भाषा और हिंदुस्तान के बहुत बड़े विरोधी थे। हिंदू सभ्यता में उन्हें खामियां दिखाई देती थी! अपनी इस सोच को वे अपने तक ही सीमित न रखते थे, बल्कि बड़ी ही प्रभावशाली भाषा में इस बारे में लिखते और बोलते थे। हिंदू सभ्यता के समझदार भक्त उनकी इस नासमझ सोच पर हुँसते थे; लेकिन मजाक और विरोध तो सुधारने वाले का इनाम हैं। मि. कैलाश उनकी कुछ परवाह न करते। वे सिर्फ बातें ही नही करते थे, कर्मवीर भी पूरे थे। कामिनी की आजादी उनकी सोच का जीता जागता सबूत थी। अच्छा तो यह था कि कामिनी के पति गोपालनारायण भी इसी सोच में रंगे हुए थे। वे साल भर से अमेरिका में पढ़ाई कर रहे थे। कामिनी भाई और पति के सोच का पूरा फायदा उठाने में कमी न करती थी।
लखनऊ में अल्फ्रेड थिएटर कम्पनी आयी हुई थी। शहर में जहाँ देखिए, उसी तमाशे की चर्चा थी। कामनी की रातें बड़े मजे से कटती थीं रात भर थियेटर देखती, दिन को सोती और कुछ देर वही थियेटर के गीत गाती, सुंदरता और प्यार की नई आकर्षक दुनिया में घूमती थी जहाँ का दुख और परेशानी भी इस दुनिया के सुख और मजे से बढ़कर खुशी देने वाला है। यहाँ तक कि तीन महीने बीत गए, रोज़ प्यार की नई मन मोहने वाली शिक्षा और प्यार के मन बहलाने वाली बातों का पर कुछ-न-कुछ असर होना चाहिए था, सो भी इस चढ़ती जवानी में। वह असर हुआ। इसकी शुरुआत उसी तरह हुई, जैसे कि अक्सर हुआ करती है।
थियेटर हाल में एक सुंदर और आकर्षक लड़के की आँखें कामिनी की ओर उठने लगीं। वह सुंदर और चंचल थी, इसलिए पहले उसे दिल में किसी राज का पता न चला। आँखों का सुन्दरता से बड़ा गहरा रिश्ता है। घूरना आदमी का और शर्माना औरत का स्वभाव है। कुछ दिनों के बाद कामिनी को इन आँखों में कुछ छुपे हुए भाव झलकने लगे। मंत्र अपना काम करने लगा। फिर आँखों में आपस में बातें होने लगीं। आँखें मिल गई। प्यार बढ़ गया। कामिनी एक दिन के लिए भी अगर किसी दूसरे आयोजन में चली जाती, तो वहाँ उसका मन न लगता। मन उचटने लगता। आँखें किसी को ढूँढ़ा करतीं। आखिर में शर्म का बाँध टूट गया। दिल में बहार आ गई। होंठों का ताला टूटा। प्यार भरी बातें होने लगी! कविताओं के बाद कहानियों की बारी आयी और फिर दोनों एक दूसरे के करीब आ गए। इसके बाद जो कुछ हुआ, उसकी झलक हम पहले ही देख चुके हैं।
इस लड़के का नाम रूपचन्द था। पंजाब का रहने वाला, संस्कृत का शास्त्री, हिन्दी साहित्य का पूरा पण्डित, अंग्रेज़ी का एम.ए., लखनऊ के एक बड़े लोहे के कारखाने का मैनेजर था. घर में सुंदर बीवी, दो प्यारे बच्चे थे। अपने साथियों में अच्छे चाल चलन के लिए मशहूर था। न कोई खराबी न कोई ऐब।। घर-गृहस्थी में जकड़ा हुआ था. मालूम नहीं, वह कौन-सा आकर्षण था, जिसने उसे इस जादू में फैसा लिया, जहाँ की जमीन आग और आकाश अंगार है, जहाँ नफरत और पाप है और बदकिस्मत कामिनी को क्या कहा जाय, जिसके प्यार की बाढ़ ने थीरज और समझ का बाँध तोड़कर अपने अंदर में नियम और इज्जत की टूटी-फूटी झोपड़ी को डुबा दिया। यह पिछले जन्म के संस्कार थे: रात के दस बज गए थे। कामिनी लैम्प के सामने बेठी हुई चिट्ठियाँ लिख रही थी। पहली चिट्ठी रूपचन्द के नाम थी:
कैलाश भवन, लखनऊ प्रियतम ।
तुम्हारी चिट्ठी पढ़कर जान निकल गई। उफ! अभी एक महीना लगेगा। इतने दिनों में शायद तुम्हें यहाँ मेरी राख भी न मिलेगी। तुमसे अपने दुख क्या रोऊँ। बनावट के इल्जामों से डरती हूँ। जो कुछ बीत रही है, वह में ही जानती हूँ लेकिन बिना जुदाई की कहानी सुनाए दिल की जलन कैसे जाएगी? यह आग कैसे ठंडी होगी? अब मुझे मालूम हुआ कि अगर प्यार में दहकती हुई आग है, तो जुदाई उसके लिए घी है। थिएटर अब भी जाती हूँ, पर खुशी के लिए नहीं, रोने और भुलने के लिए। रोने में ही मन को कुछ शांति मिलती है, आँसू उमड़े चले आते हैं। मेरा जीवन सूखा और फीका हो गया है। न किसी से मिलने को जी चाहता है, न मनोरंजन में मन । लगता परसों डाक्टर केलकर का भाषण था, भाई साहब ने बहुत कहा, पर मैं न जा सकी। प्यारे! मौत से पहले मत मारो। खुशी के गिर्ने-गिनाए पलों में जुदाई का दुख मत दो। आओ, जितनी जल्दी हो सके आओ, और गले लगकर मेरे दिल का ताप बुझाओ, वरना आश्चर्य नहीं की जुदाई का यह गहरा सागर मुझे निगल जाय। तुम्हारी कामिनी इसके बाद कामिनी ने दूसरी चिट्ठी पति को लिखी:
माई डियर गोपाल
अब तक तुम्हारी दो चिट्ठी आई। लेकिन दुख है, मैं उनका जवाब न दे सकी। दो हफ्ते से सिर में दर्द से तकलीफ सह रही हूँ, किसी तरह मन को शांति नहीं मिलती है। पर अब कुछ ठीक हूँ। कुछ चिन्ता मत करना। तुमने जो नाटक भेजे, उनके लिए बहुत धन्यवाद देती हूँ। ठीक हो जाने पर पढ़ना शुरू करूंगी। तुम वहाँ के सुंदर नजारों के बारे में मत बताया करो। मुझे तुम से जलन होती है। अगर में कहूँ तो भाई साहब वहाँ तक पहुँचा तो देंगे, लेकिन इनके खर्च इतने ज्यादा है कि इन्हें बार बार देखना मुमकिन नहीं है और इस समय तुम पर भार देना भी मुश्किल है। भगवान चाहेंगे तो वह दिन जल्दी देखने में आएगा, जब मैं तुम्हारे साथ खुशी से वहां की सैर करगी। मैं इस समय तुम्हें कोई तकलीफ देना नहीं चाहती। आशा है, तुम अच्छे से होगे। तुम्हारी कामिनी लखनऊ के सेशन जज के सुनवाई में बड़ी भीड़ थी। अदालत के कमरे ठसाठस भर गए थे। तिल रखने की जगह न थी। सबकी नजर बड़ी बेचैनी से जज के सामने खड़ी एक सुन्दर औरत पर लगी हुई थी। यह कामिनी थी। उसका मुँह बीगड़ रहा था। माथे पर पसीने की बूदे झलक रही थी। कमरे में गहरी शांति थी। सिर्फ वकीलों की कानाफूसी और सैन कभी-कभी इस शांति को तोड़ देती थी। अदालत के सामने का हिस्सा आदमियों से इस तरह भर गया था कि जान पड़ता था, मानो सारा शहर सिमटकर यहीं आ गया है। था भी ऐसा ही। शहर की ज्यादातर दुकानें बंद थीं और जो एक आध खुली भी थीं, उन पर लड़के बैठे ताश खेल रहे थे, क्योंकि कोई ग्राहक न था। शहर से कचहरी तक आदमियों का ताँता हुआ था कामिनी की झलक देखने के लिए, उसके मुँह से एक बात सुनने के लिए, इस समय हर आदमी अपना सब कुछ लुटाने के लिए तैयार था। वे लोग जो कभी पंडित दातादयाल शर्मा जैसा प्रभावशाली बोलने वाले का भाषण सुनने के लिए घर से बाहर नहीं निकले, वे जिन्होंने नवजवान मनचले बेटों को अलफ्रेड थियेटर में जाने की इजाजत नहीं दी, वे अकेलापन पसंद करने वाले जिन्हें वायसराय के आने तक की खबर न हुई थी, वे शांति को पसंद करने वाले, जो मुहर्रम की चहल-पहल देखने अपने घर से बाहर थे वे सभी आज गिरते-पड़ते, उठते-बैठते, अदालत की ओर दौड़े जा रहे थे। बेचारी औरतें अपनी र न निकलते थे । किस्मत को कोसती हुई अपनी-अपनी छतों पर चढ़कर मजबूर बेचैन नजरों से उस तरफ ताक रही थीं, जिधर उन्हें लगता कि अदालत थी पर उनकी बेचारी आँखें बेदिल इमारतों की दीवार से टकराकर लौट आती थीं।
यह सब कुछ इसलिए हो रहा था कि आज अदालत में एक बड़ा अच्छा और सुंदर नाटक होने वाला था, जिस पर अलफ्रेड थियेटर के हजारों नाटक कुर्बान थे। । आज एक छुपा हुआ राज खुलने वाला था, जो अँधेरे में छोटा है, पर उजाले में बड़ा हो जाता है। इस घटना के बारे में लोग बाततं कर रहे थे। कोई कहता यह नामुमकिन है कि रूपचंद-जैसा पढ़ा लिखा आदमी ऐसा गंदा काम करे। पुलिस का यह बयान है, तो हुआ करे। गवाह पुलिस के बयान का साथ देते हैं, तो दिया करें। यह पुलिस का अत्याचार है, नाईसाफी है। कोई कहता था, भाई सच तो यह है कि यह चेहरे की सुंदरता, यह सुंदर आँखें और यह दिल जीत लेने वाली सुन्दर सलोनी मूर्ति जो कुछ न करे, वह थोड़ा है। सुनने वाले को इन बातों को बड़े चाव से इस तरह आश्चर्य चकित मुँह बनाकर सुनते थे, मानो भगवान की बातें हो रही है। सबकी जीभ पर यही बात थी। खूब नमक-मिर्च लपेटा जाता था। लेकिन इसमें सहानुभूति के लिए जरा भी जगह न थी।
पंडित कैलाशनाथ का बयान खत्म हो गया और कामिनी सुनवाई पर आई। इसका बयान बहुत छोटा था- “में अपने कमरे में रात को सो रही थी। कोई एक बजे के करीब चोर-चोर का हल्ला सुनकर मैं चौंक पड़ी और अपनी चारपाई के पास चार आदमियों को हाथापाई करते देखा। मेरे भाई साहब अपने दो चौकीदारों का साथ रूपचंद को पकड़े हुए थे और वह जान छुड़ाकर भागना चाहता था। में जल्दी से उठकर बरामदे में निकल आयी। इसके बाद मैंने चौकीदारों को अपराधी के साथ पुलिस स्टेशन की ओर आते देखा। रूपचंद ने कामिनी का बयान सुना और एक ठडी साँस ली। आँखों के आगे से परदा हट गया। कामिनी, तू ऐसी एहसान फरामोश, इतनी निर्दयी, इतनी बुरी और खराब है ! क्या तेरा वह प्यार, वह जुदाई का दर्द, वह प्यार का दावा, सब धोखा था! तूने कितनी बार कहा कि अटलता के साथ डटे रहना प्यार मंदिर की पहली सीढ़ी है। तूने कितनी बार आँखों में आंसू भरकर इसी गोद में मुँह छिपाकर मुझसे कहा है कि मैं तुम्हारी हो गई, मेरी इज्जत अब तुम्हारे हाथ में है। लेकिन हाय! आज प्यार की परीक्षा के समय तेरी वो बातें झूठी निकलीं। आह ! तूने धोखा दिया और मेरा जीवन मिट्टी में मिला दिया।
रूपचंद तो विचार-तरंगों में डूबा हुआ था। उसके वकील ने कामिनी से बहस करना शुरू किया।
वकील- “क्या तुम सच्चाई के साथ कह सकती हो कि रूपचंद तुम्हारे मकान पर अक्सर नहीं जाया करता था? “मैंने कभी उसे अपने कामिनी- पर नहीं देखा।
वकील- “क्या तुम कसम खा कह सकती हो कि तुम उसके साथ कभी थियेटर देखने नहीं गयीं?”
कामिनी- “मैंने उसे कभी नहीं देखा।” वकील- “क्या तुम शपथ लेकर कह सकती हो कि तुमने उसे प्यार भरी चिट्ठी नहीं लिखी?”
शिकार चंगुल में फंसे हुए पक्षी की तरह चिट्ठी का नाम सुनते ही कामिनी के होश-हवाश उड़ गए, हाथ-पैर फूल गए। मुँह न खुल सका। जज ने, वकील ने और दो सैकड़ों आँखों ने उसकी तरफ बेचैनी से देखा।
रूपचंद का मुँह खिल गया। उसके दिल में आशा आई। जहाँ फूल था, वहाँ काँटा पैदा हुआ। मन में कहने लगा- “कुलटा कामिनी अपने सुख और धोखे, मान-सम्मान पर मेरे परिवार की हत्या करने वाली कामिनी तु अब भी मेरे हाथ में है। मैं अब भी तुझे इस एहसान फरामोशी और थोखे की सजा सकता हूँ। तेरी चिट्टी, जिन्हें तूने सच्चे दिल से लिखा या नहीं, मालूम नहीं, लेकिन जो मेरे दिल की आग को शांत करने के लिए जादू थे, वह सब मेरे पास हैं और वह इसी समय तेरा सब राज खोल देंगे। इस गुस्से से पागल होकर रूपचंद ने अपने कोट के पॉकेट में हाथ डाला। जज ने, वकीलों ने और दो हज़ार आँखों ने उसकी तरफ देखा तब कामिनी की परेशान आंखें चारों से दुखी होकर रूपचंद की ओर पहुंचीं। उनमें इस समय शर्म थी, दया की प्रार्थना थी और बेचैनी थी, मन-ही-मन कहती थी-मैं औरत हूँ, अबला हूं, कमजोर हूं, तुम आदमी हो, ताकतवर हो, हिम्मत वाले हो, यह तुम्हारे स्वभाव के खिलाफ़ है। में कभी तुम्हारी थी और हालांकि समय मुझे तुमसे अलग कर रहा है, लेकिन मेरी इज्जत तुम्हारे हाथ में है, तुम मेरी रक्षा करो। आँखें मिलते ही रूपचंद उसके मन की बात समझ गए। उनकी आँखों ने जवाब दिया- “अगर तुम्हारी इज्जत मेरे हाथों में है, तो उस पर कोई आँच नहीं आने पाएगी। तुम्हारी इज्जत पर मेरा सब कुछ कुर्बान है।
रूपचंद के वकील ने कामिनी से फिर वही सवाल किया- “क्या तुम कसम खा कर कह सकती हो कि तुमने रूपचंद को प्यार की चिट्ठी नहीं लिखी ? कामिनी ने डरी हुई आवाज में जवाब दिया- “मैं कसम खा कर कहती हूँ कि मैंने उसे कभी कोई चिट्ठी नहीं लिखी और अदालत से अपील करती हूँ कि वह मुझे इन शर्मनाक झूठे इल्जामों से बचाए”। कामिनी की कार्यवाई खत्म हो गई। अब अपराधी के लिए बयान की बारी आयी। उसकी सफाई के कोई गवाह न थे। लेकिन वकीलों को, जज को और बेसब्र जनता को पूरा भरोसा था कि रूपचंद का बयान पुलिस के झूठे केस को पल भर में तोड़ देगा रूपचंद सुनवाई के सामने आया। उसके चहरे पर
आत्मबल का तेज झलक रहा था और आँखों से हिम्मत और शांति । देखने वाले उतावले होकर अदालत के कमरे में घुस पड़े। रूपचंद इस समय का चाँद अ या देवलोक की मान लिया। लोग । सैकड़ों आँखें उसकी ओर लगी धन लेकिन दिल को कितना आश्चर्य हुआ, जब रूपचंद ने बड़े ही शांत मन से अपना अपराध एक दूसरे मुँह ताकने लगे।
का रूपचंद का बयान खत्म होते ही ही हल्ला मच गया। सभी इसकी बातें करने लगे। सबके मुँह पर आश्चर्य धा, शक था और निराशा थी। कामिनी की एहसान फरामोशी और बेदिली पर धिक्कार हो रही थी। हर इंसान कसम खाने पर तैयार था कि रूपचंद बेगुनाह है। प्यार ने उसके मुँह पर ताला लगा दिया है। पर कुछ ऐसे भी दूसरे के दुःख में खुश होने वाले स्वभाव के लोग थे, जो उसकी इस हिम्मत पर हुँसते और मजाक उड़ाते थे। ऐसे । होने दो घंटे बीत गए। अदालत में फिर एक बार शांति फैल गई। जज साहब फैसला सुनाने के लिए खड़े हुए। फैसला बहुत छोटा था। रूपचंद जवान है, अंधा। इसे शिक्षा देने वाली सजा देना जरूरी है। अपराध स्वीकार करने से उसकी सजा कम नहीं होती।
पढ़ा लिखा है और सभ्य है, इसलिए आँखों का इसलिए मैं उसे पाँच साल कैद की सजा देता हूँ।
दो हजार लोगों ने दिल थामकर फैसला सुना। मालूम होता था कि कलेजे में भाला चुभ गया है सभी का मुँह निराशा से पैदा हुए गुस्से से लाल हो रहा था। यह अन्याय है, कठोरता और बेरहमी है। लेकिन रूपचंद के मुँह पर शांति थी। सीख इस कहानी के जरिए मुंशी प्रेमचंद जी यह बताना चाहते हैं कि जब कोई अपना धर्म और अपनी संस्कृति छोड़ नई संस्कृति की ओर भागता हैं
तब वह इंसान यह भूल जाता है कि हर धर्म और हर संस्कृति की अपनी अच्छाई और बुराई होती है। नई संस्कृति अपनाने की हड़बड़ी में अव्सर लोग उसकी बुराइयां भूल जाते हैं या नजरअंदाज कर देते हैं जोकि बाद में एक बड़े रूप में उनके सामने आती है, उस समय उनकी मदद उसी संस्कृति के कारण होती है जिसे वह पीछे छोड़ आए थे। जिस तरह कामिनी भारतीय संस्कृति छोड़ पश्चिमी संस्कृति को अपनाने गई थी लेकिन जब उसे मुसीबत का सामना करना पड़ा, तो उसकी रक्षा रूपचंद के अंदर बसी भारतीय संस्कृति ने ही की।
दूसरी बात, कई बार जीवन में ऐसे पल आते हैं जहां फैसला लेना बेहद मुश्किल हो जाता है जैसे रूपचंद के लिए हो गया था. वो धर्मसंकट में पड़ गया था कि खुद को बचाए या एक औरत के सम्मान को लेकिन उसने सोच समझकर कामिनी की इज्ज़त बेदाग रखने के लिए वो दाग अपने ऊपर ले लिया, कई बार सही गलत के दायरे मायने नहीं रखते बल्कि हमें उससे ऊपर उठकर सोचना पड़ता है इसलिए जीवन में जो भी परिस्थिति आए तो आपके फैसले का क्या नतीजा हो सकता है उसे ध्यान में रखकर सोच समझकर फैसला करें,