AADARSH VIRODH by Munshi premchand.

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महाशय दयाकृष्ण मेहता के पाँव जमीन पर न पड़ते थे। उनकी वह इच्छा पूरी हो गयी थी जो उनके जीवन का सुंदर सपना था। उन्हें वह राज्याधिकार मिल गया था जो भारत में रहने वालों के लिए जीवन-स्वर्ग है। वाइसराय ने उन्हें अपनी कामकारिणी सभा (cxecutive assembly) का मेम्बर बना दिया था।

दोस्त उन्हें बधाइयाँ दे रहे थे। चारों ओर खुशियाँ मनाई जा रही थी, कहीं दावतें होती थीं, कहीं आश्वासन-पत्र दिये जाते थे। वह उनका अकेले का सम्मान नहीं, देश का सम्मान समझा जाता था। अंग्रेज़ अधिकारी भी उन्हें हाथों-हाथ लिये फिरता था

महाशय दयाकृष्ण लखनऊ के एक मशहूर बैरिस्टर थे। बड़े उदार दिल, राजनीति में कुशल और लोगों के लिए काम करने वाले । हमेशा सामाजिक कामों

में लगे रहते। पूरे देश में शासन का ऐसा निडर जानकार, बिना पक्ष लिए बात करने वाला न था और न लोगों को इतनी बारीकी से समझने वाला,

भरोसेमंद और अच्छे दिल का दोस्त था।

अखबारों में इस नियुक्ति पर खूब व बातें हो

ऐसा

हो रही थीं। एक ओर से आवाज आ रही थी हम गवर्नमेंट को इस चुनाव पर बधाई नहीं दे सकते। दूसरी ओर के लोग कहते थे, यह सरकार की दयालुता और लोगों के फायदे के लिए सोचने का सबसे बड़ा उदाहरण है। तीसरा दल भी था, जो दबी जबान से कहता था

कि देश का एक और आधार, बुनियाद गिर गया।

शाम का समय था। कैसर पार्क में लिबरल लोगों की ओर से महाशय मेहता को पार्टी दी गयी प्रान्त भर के खास आदमी इकट्ठा थे। खाने के बाद

सभापति ने अपने भाषण में कहा- “हमें पूरा यकीन है कि आपका मेंबर बनना लोगों के लिए फायदेमंद होगा, और आपकी कोशिशों से उन धाराओं में

बदलाव हो जायगा, जो हमारे देश में परेशानी बनी हुई हैं।” महाशय मेहता ने जवाब देते हुए कहा- “देश का कानून हालातों के कारण होते हैं। जब तक हालातों में बदलाव न हो, कानून में अच्छी व्यवस्था की उम्मीद करना बेकार है।

सभा खत्म हो गयी। दल ने कहा- कितना अच्छा और इंसाफ बाला राजनैतिक कायदा है।”

पक्ष बोला- “आ गये जाल में।”

के कई ने निशा से सिर हिला दिया, पर मुँह से कुछ न कहा।

मि. दयाकृष्ण को दिल्ली आये हुए एक महीना हो गया। फागुन का महीना था। शाम हो रही थी वे अपने बगीचे में तालाब के किनारे एक मखमली आरामकुर्सी पर बैठे । मिसेज रामेश्वरी मेहता सामने बैठी हुई पियानो बजाना सीख रही थीं और मिस मनोरमा तालाब की मछलियों को बिस्कुट के खिला थीं। सहसा उसने पिता से पूछा- यह अभी कौन साहब आये थे।” ई मेल के सैनिक मेम्बर हैं।” मेहता-

मनोरमासान होंगे?” “वाइसराय के नीचे यही होंगे

मेहता- “वाइसराय के नीचे तो सभी हैं। तनख्वाह भी सबकी बराबर है, लेकिन इनकी काबिलियत तक कोई नहीं पहुँचता। क्यों राजेश्वरी, तुमने अंग्रेज़ लोग कितने अच्छे और शांत होते हैं।”

राजेश्वरी- “में तो उन्हें शांति का पुतला कहती हूँ। इस गुण में भी ये हमसे आगे है। उनकी पत्नी मुझसे कितने प्यार से गले मिलीं।”

मनोरमा- “मेरा तो जी चाहता था, उनके पैरों पर गिर पड़े।”

देखा,

मेहता- मैंने ऐसे दयालु, सभ्य, ईमानदार और लोगों को समझने वाला इंसान नहीं देखे। हमारा दया-धर्म कहने ही को है। मुझे इसका बहुत दुख है कि अब तक क्यों इनके बारे में हमारी सोच गलत रही। आमतौर पर इनसे हम लोगों को जो शिकायतें हैं उनका कारण आपस में जान पहचान ना होना है।

एक दूसरे के स्वभाव और व्यवहार को नहीं जानना है।” राजेश्वरी- “एक यूनियन क्लब की बड़ी जरूरत है जहाँ दोनों जातियों के लोग एक साथ होने का सुख उठा पाएँ। आपस की दुश्मनी मिटाने का बस यही तरीका है।

मेहता- “मेरा भी यही सोचना है। (घड़ी देख कर) 7 बज रहे हैं, व्यदसाय मंडल (board of business) के जलसे का समय आ गया भारत में रहने वालों की अजीब हालत मे समझते हैं कि हिंदुस्तानी मेम्बर काउंसिल में आते ही हिंदुस्तान के मालिक हो जाते हैं और जो चाहें आजादी से कर सकते हैं। उम्मीद की जाती है कि वे सरकारी कानून को पलट दें, नया आकाश और नया सुरज बना दें। उन सीमाओं के बारे में नहीं सोचा जाता है जिनके अंदर मेम्बरों को काम करना पड़ता है।

राजेश्वरी- ‘इनमें उनकी गलती नहीं। दुनिया की यह रीत है कि लोग अपनों से सभी तरह की उम्मीद रखते हैं। अब तोकाउंसिल के आधे मेम्बर हिंदुस्तानी हैं।

क्या उनकी राय का सरकार के कानून पर असर नहीं हो सकता ? मेहता- “जरूर हो सकता है, और हो रहा है। लेकिन उस कानून को बदला नहीं जा सकता। आथे नहीं, अगर सारे मेम्बर हिंदुस्तानी हों तो भी वे नयी नीति की शुरुआत नहीं कर सकते। वे कैसे भूल जाएँ कि काउंसिल में उनकी मौजूदगी सिर्फ सरकार की कृपा और भरोसे पर टिकी है। उसके अलावा वहाँ आ कर उन्हें अंदर के हालातों के बारे में पता चलता है और लोगों के ज्यादातर शक बेकार लगने लगते हैं, पद के साथ जिम्मेदारी का भारी बोझ भी सिर पर आ पड़ता है। कोई नया कानून बनाते समय उनके मन में यह बात आना स्वभाविक है कि इसका कोई उल्टा असर ना हो जाए। यहाँ असल में १ मन सरकार की आंखों में खटक रहे हैं। आपने भाषण में इं्य झिझकते हैं जो पहले इनक साथ काम कर चुके थे; पर अब अपने मनमाने सोच के कारण उनकी आजादी खत्म हो जाती है। उन लोगों से मिलते हुए और सच्चाई की मे हैं बातें करते हैं और सरकार की नीति को गलत समझते हुए भी उसका समर्थन करते हैं। जब इसके खिलाफ वे कुछ कर ही नहीं सकतें, तो इसका खिलाफत करके बेइज्जत क्यों बनें ? इस हालत में यही सबसे सही है कि बातें बना कर खुद को बचाया जाय। और सबसे बड़ी बात यह है कि ऐसे अच्छे, दयालू, कानून के बारे में अच्छा सोचने वाले के खिलाफ कुछ कहना या करना इंसानियत और अच्छे व्यवहार का गला घोटना है। यह लो, मोटर आ गयी। चलो व्यवसाय-मंडल में लोग आ गये होंगे।” ये लोग वहाँ पहुँचे तो तालियां बजने लगी। सभापति महोदय ने एड्रेस पढ़ा जिसका सार यह था कि सरकार को उन शिल्प-कलाओं (Craft) को बचाना ए जो देश के दूसरे शिल्प- के कारण मिटी जाती हैं। देश की व्यवसायिक उन्नति (commercial progress) के लिए नये-नये कारखाने ने खोलने चाहिए और जब वे सफल हो जावें तो उन्हें व्यावसायिक संस्थाओं (business organization) के हवाले कर देना चाहिए। उन कलाओं की पैसे से मदद करना भी उसका फर्ज है, जो अभी सोती हुई हालत में हैं, जिससे लोगों का उत्साह बढ़े। मेहता महोदय ने सभापति को धन्यवाद देने के बाद सरकार की व्यवसाय से जुड़े कानून की घोषणा करते हुए कहा- “आपके सिद्धांत बिल्कुल सही हैं, लेकिन उसे व्यवहार में लाना बहुत मुश्किल है। गवर्नमेंट मान भी जाती है, लेकिन औद्योगिक (Industrial) कामों में आगे बढ़ना जनता का काम है। आपको याद रखना चाहिए कि भगवान भी उन्हीं की मदद करता है जो अपनी मदद आप करते हैं आपमें खुद पर यकीन, औद्योगिक उत्साह का बड़ी कमी है। कदम कदम पर सरकार के सामने हाथ फैलाना अपनी नालायक और निकम्मे होने की सूचना देना है।”

दूसरे दिन अखबारों में इस भाषण पर बातें होने लगीं। एक दल ने कहा- “मिस्टर मेहता की स्पीच ने सरकार की नीति को बड़े अच्छे और साफ ढंग से तय दूसरे दल ने लिखा- “हम मिस्टर मेहता की स्पीच पढ़ कर चकित हो गये। व्यवसाय-मंडल ने वहीं रास्ता अपनाया जिसको दिखाने वाले खुद मिस्टर मेहता थे। उन्होंने उस कहावत को सच कर दिया के नमक की खान में जो कुछ जाता है, नमक हो जाता है।”

कर दिया है।”

तीसरे दल ने लिखा- “हम मेहता महोदय के इस सिद्धांत से पूरी तरह सहमत हैं कि हमें कदम कदम पर सरकार के सामने गरीबों की तरह हाथ न फैलाना चाहिए।

भाषण उन लोगों की आँखें खोल देगी जो कहते हैं कि हमें लायक आदमीओं को काउंसिल में भेजना चाहिए। व्यवसाय-मंडल के सदस्यों है जो आत्म-विश्वास का उपदेश सुनने के लिए कानपुर से दिल्ली गये थे।” पर दया आती है चैत का महीना था। शिमला आबाद हो चुका था। मेहता महाशय अपने library बैठे हुए पढ़ रहे थे कि राजेश्वरी ने आ कर पूछा- ‘ये कैसे पत्र हैं ?” मेहता- “यह खर्च का हिसाब किताब है। अगले हफ्ते में काउंसिल में पेश होगा। उनकी कई चीजें ऐसी हैं जिन पर मुझे पहले भी शक था और अब भी है। अब समझ में नहीं आता कि इस पर इजाजत कैसे दं। यह देखों, तीन करोड़ रुपये ऊँचें पद के कर्मचारियों की तनख्वाह बढ़ाने के लिए रखे गये हैं। यहाँ कर्मचारियों की तनख्वाह पहले से ही बढ़ी हुई है। इसे बढ़ाने की जरूरत ही नहीं, पर बात जबान पर कैसे लाऊँ ? जिन्हें इससे फायदा होगा वे सभी रोज के मिलने वाले हैं। सैनिक खर्च में बीस करोड़ बढ़ गये हैं। जब हमारी सेनाएँ दूसरे देशों में भेजी जाती हैं तो पता ही है कि हमारी जरूरत के सेवेन दस कीज के खिलाफ बोले तो काउंसिल मुझ पर उँगलि उठाने लगे। ज्यादा

राजेश्वरी- “इस डर से चुप रह जाना तो ठीक नहीं, फिर तुम्हारे यहाँ आने से ही क्या फायदा हुआ।” मेहता- कहना तो आसान है, पर करना मुश्किल है। यहाँ जो कुछ आदर-सम्मान है, सब हाँ-हुजूर में है। वायसराय की नज़र जरा तिरछी हो जाय, तो

कोई पास न फटके। नाक कटा बन जाऊँ। यह लो, राजा भट्रबहादुर सिंह जी आ गये।”

राजेश्वरी- “शिवराजपुर कोई बड़ी रियासत है।

मेहता- “हाँ, साल में पंद्रह लाख से कम कमाई न होगी और फिर आजाद राज्य है। राजेश्वरी- “राजा साहब मनोरमा की ओर बहुत आकर्षित हो रहे हैं। मनोरमा को भी उनसे प्यार होता जान पड़ता है।”

मेहता- यह रिश्ता हो जाय तो क्या पूछना! यह मेरा अधिकार है जो राजा साहब को इधर खींच रहा है। लखनऊ में ऐसे अच्छे मौके कहाँ थे? वह देखो फाइनेंस सेक्रेटरी मिस्टर काक आ गये।

काक- “(मेहता से हाथ मिलाते हुए मिसेज मेहता, मुझे आपका पहनावा बहुत पसंद है। दुख है, हमारी औरतें साड़ी नहीं पहनतीं।”

राजेश्वरी- “मैं तो अब गाउन पहनना चाहती हूँ।”

काक- “नहीं मिसेज मेहता, भगवान के लिए यह गलती न करना। मिस्टर मेहता, मैं आपके लिए एक बड़ी खुशखबरी लाया हूँ। आपके काबिल आ रहे हैं या नहीं ? महाराजा भिंद उन्हें अपना प्राइवेट सेक्रेटरी बनाना चाहते हैं। आप उन्हें आज ही ख़बर दे दें।

मेहता- में आप “में आपका बहुत एहसानमंद हूँ।”

बेटे अभी

काक- “तार दे दीजिए तो अच्छा हो। आपने काबुल की रिपोर्ट तो पढ़ी होगी। हिज मैजेस्टी अमीर हमसे समझोता करने के लिए राजी नहीं लगते। दे मैं तो ऐसा नहीं समझता। पिछली शताब्दी में काबुल को भारत पर आक्रमण करने का साहस कभी न हुआ। भारत ही आगे बढ़ा। हाँ, वे लोग बोल्शेविक की ओर झुके हुए हैं। हालात चिंताजनक है।”

मेहता- में अपनी रक्षा करने में अच्छे हैं।”

काक- ‘लेकिन माफ कीजिएगा, आप भूल जाते हैं कि ईरान-अफगानिस्तान और बोल्शेविक में समझौता हो गया है। का जमा जाना चिंता की बात नहीं ? उनसे चौकना रहना हमारा फर्ज है।” इतने में लंच का समय आया। लोग मेज पर जा बैठे। उस समय घुड़दौड़ और थियेटर की बात ही अच्छी लगती है।

क्या हमारी सीमा पर इतने दुश्मनों

मेहता महोदय ने बजट पर जो सोच रखी थी, उनसे सभी देश में हलचल मच गयी। एक दल उन विचारों को भगवान का कहा समझता था, दूसरा दल भी कुछ भागों को छोड़कर बाकी सोच से सहमत था, लेकिन तीसरा दल भाषण के रोता था। उसे यकीन ही न आता था कि ये शब्द मेहता की जबान से निकले एक-एक शब्द पर निराशा से सिर धुनता और भारत के गिरते हालातों पर ने होंगे।

मुझे आश्चर्य है कि गैर-सरकारी सदस्यों साथ प्रस्तावित खर्च के उस भाग का विरोध किया जिस पर देश की रक्षा, शान्ति, सुदशा और उन्नति टिकी है। आप शिक्षा से जुड़े सुधारों को, चिकित्सा नियम को, नहर बढ़ाने को ज्यादा जरूरी समझते हैं। आपको कम तनख्वाह वाले कर्मचारियों का ज्यादा ध्यान है। मुझे आप लोगों के राजनैतिक ज्ञान पर इससे ज्यादा भरोसा था। सरकार का मुख्य फर्ज अंदर और बाहर की अशांतिकारी ताकतों से देश को बचाना है। शिक्षा और चिकित्सा, इंडस्ट्री और बिज़नेस बाद में है। हम अपनी सभी लोगों को अनपढ़ देख सकते हैं, सभी देश को प्लेग और मलेरिया से बीमार रख सकते हैं, कम तनख्वाह वाले कर्मचारियों की गरीबी की चिंता में जला सकते हैं, किसानों को प्रकृति के अनिश्चित हालात पर छोड़ सकते हैं, लेकिन अपनी सीमा पर किसी दुश्मन को खड़े नहीं देख सकते। अगर हमारी कमाई पूरी तरह देश-रक्षा पर लग जाय, तो भी आपको तकलीफ न होनी चाहिए। आप कहेंगे इस समय किसी हमले के आसार नहीं आग लग सकती हैं, पेड़ों में बातचीत हो सकती है। मैं कहता हूँ दुनिया में कुछ भी तय है। मरा हुआ जिंदा हो सकता है। क है पानी में हवा में रेल चल सकती है, ये रहस्य रोज हमारी नजरों से नहीं गुजरते ? आप कहेंगे नेताओं का काम सम्भावनाओं के पीछे दौड़ना नहीं, आज और नजदीकी भविष्य की परेशानियों को हल करना है। नेताओं के फर्ज क्या हैं, मैं इस बहस में ना पड़ना चाहता; लेकिन इतना तो सभी मानते हैं कि अच्छा खाना और परहेज़, दवाई खाने से अच्छा होता है आपका सिर्फ यही धर्म नहीं कि सरकार के सैनिक खर्च का साथ दें, बल्कि यह प्रस्ताव आपकी ओर से पेश होना चाहिए ! आप कहेंगे कि स्वयंसेवकों की सेना बढ़ायी जाय। सरकार को हाल के विश्व युद्ध में इसका बहुत ही दुखद अनुभव हो चुका है। पढ़े लिखे लोग आरामपसंद, डरपोक और स्वार्थी हैं। देहात के लोग शांति पसंद करने वाले, छोटे दिल के में डरपोक न कहूँगा) और घर के लिए काम करने वाले हैं। उनमें वह आत्म-त्याग कहाँ, वह बहादुरी कहाँ, अपने पूर्वजों की वह बहादुरी कहाँ ? और शायद मुझे यह याद दिलाने की जरूरत नहीं कि किसी शांति पसंद करने वाले लोगों को आप दो-चार सालों में अच्छे लड़ाके और बढ़िया सैनिक नहीं बना सकते जेठ का महीना था, लेकिन शिमले में न लू की ज्वाला थी और न धूप का ताप। महाशय मेहता विदेशी चिट्ठियाँ खोल रहे थे। बालकृष्ण का पत्र देखते ही फड़क उठे, लेकिन जब उसे पढ़ा तो चेहरे पर उदासी छा गयी। पत्र लिये हुए राजेश्वरी के पास आये। उसने उत्सुक होकर पूछा- बाला का पत्र आया ‘

मेहता- “हाँ, यह है।” राजेश्वरी- “कब आ रहे हैं।

मेहता- “आने-जाने के बारे में कुछ नहीं लिखा। बस, सारी चिट्ठियों में मेरे जाति के खिलाफ काम का और बुरी हालत का रोना है। उसकी नजर में में जाति का दुश्मन, चालाक स्वार्थी, बुरा इसान, सब कुछ हूँ। मैं नहीं समझ पा रहा कि उसके विचारों में इतना बदलाव कैसे हो गया। मैं तो उसे बहुत ही शांत स्वभाव, गम्भीर, सुशील, अच्छे व्यवहार और सिद्धांत पसंद करने वाला लड़का समझता था और उस पर गर्व करता था और फिर यह चिट्ठी लिख कर ही उसे संतोष नहीं हुआ, उसने मेरी स्पीच का डिटेल में interpretation एक मशहूर अंग्रेज़ी मैगज़ीन में छपवाया है। ये अच्छा हुआ कि वह लेख अपने नाम से नहीं लिखा, नहीं तो मैं कहीं मुँह दिखाने लायक न रहता। मालूम नहीं यह किन लोगों के गलत साथ का फल है। महाराज भिंद की नौकरी उसके हिसाब से गुलामी है, राजा भद्रबहादुर सिंह के साथ मनोरमा की शादी धिन करने लायक और बेइज्जत करने वाला है। उसे इतनी हिम्मत कि मुझे चालाक, धोखेबाज, ईमान बेचने वाला, खानदान का दुश्मन कहे। यह बेइज्जती ! मैं उसका मुँह नहीं देखना चाहता…”

राजेश्वरी- “लाओ, जरा इस चिट्ठी को में भी देखें। वह तो इतना मुँहफट न था।”

यह कह कर उसने पति के हाथ से चिट्ठी लिया और एक मिनट में पूरा पढ़ कर बोली- “यह सब कड़वी बातें कहाँ हैं? मुझे तो इसमें एक भी बुरा शब्द नहीं मिलता।”

मेहता- “भाव देखो, शब्दों पर न जाओ।”

राजेश्वरी – “जब तुम्हारे और उसके आदर्शों में विरोध है तो उसे तुम पर श्रद्धा कैसे हो सकती है ?

लेकिन मेहता महोदय आपे से बाहर हो रहे थे। राजेश्वरी की सह लेने वाली बातों से वे और जल उठे। दफ्तर में जा कर उसी गुस्से में बेटे को चिट्ठी लिखने लगे जिसका एक-एक शब्द छुरी और कटार से भी ज्यादा तीखा था। बाद मिस्टर मेहता ने विदेशी चिट्ठियां तो बालकृष्ण की कोई चिट्ठी न थी। मेरी चोटें काम कर गयीं, आ गया सीधे रास्ते इस घटना के पर, तभी तो जवाब देने की हिम्मत नहीं हुई। ‘लंदन टाइम्स की चिट फाड़ी (इस अखबार को बड़े चाव से पढ़ा करते थे) और खबरें देखने लगे। अचानक उनके मुँह से एक आह निकली। लंदन में भारतीय देशभक्तों अखबार हाथ से छूट कर गिर पड़ा। पहला समाचार था महता के भाषण पर अकरमाव, ऑनरेबुल मिसुर बालकृष्ण का विरोध और आत्महत्या मेहता का बीते शनिवार को बैक्सटन हॉल में भारतीय लड़कों और नेताओं की एक बड़ी सभा हुई। सभापति मिस्टर तालिबजा ने कहा- “हमें बहुत खोजने पर भी काउंसिल के किसी अंग्रेज़ मेम्बर की भाषण में ऐसे दर्द भरे, ऐसे कठोर शब्द नहीं मिलते। हमने अब तक किसी नेता के मुंह से ऐसे शक पैदा करने वाले, ऐसी बेलगाम बातें नहीं सुनीं। इस भाषण ने साबित कर दिया कि भारत की उन्नति का कोई उपाय है तो वह आजादी है जिसका मतलब है सोचने और बोलने की पूरी आजादी। Evolution पर से अगर हमारा भरोसा अब तक नहीं उठा तो अब उठ गया। हमारी बीमारी लाइलाज हो गई है। यह अब दवाओं या परहेज से ठीक नहीं हो सकती। उससे बचने के लिए हमें बदलने की जरूरत है। ऊँचे सरकारी पद हमें आजाद नहीं बनाते; बल्कि हमारी आध्यात्मिक गुलामी को और भी मजबूत कर देते हैं। हमें भरोसा है कि ऑनरेबुल मिस्टर मेहता ने जिन सोच को सामने रखा है उन्हें वे अंदर से झूठ समझते हैं; लेकिन सम्मान का लालच, फायदे की चाहत और पद से प्यार ने उन्हें अपनी आत्मा का गला घोंटने पर मजबूर कर दिया है .. किसी ने ऊँची র देखा ने चौंक कर तो मिस्टर बालकृष्ण अपनी जगह पर खड़े थे। गुस्से से उनका शरीर काप रहा था। वे बोलना चाहते थे, लेकिन लोगों ने उन्हें घेर लिया और उनकी निंदा और बेइज्जती करने लगे। सभापति ने बड़ी कठिनाई से लोगों को शांत किया, लेकिन मिस्टर बालकृष्ण वहाँ से उठ कर चले गये।

आवाज से कहा- “यह झूठा इल्जाम है।”

दूसरे दिन जब दोस्त बालकृष्ण से मिलने गये तो उनकी लाश जमीन पर पड़ी हुई थी। पिस्तौल की दो गोलियाँ छाती से पार हो गयी थीं। मेज पर उनकी डायरी खुली पड़ी थी, उस पर ये पंक्तियाँ लिखी हुई थीं आज सभा में मेरा गर्व खत्म हो गया। मैं यह बेइज्जती नहीं सह सकता। मुझे अपने पिता के लिए ऐसे कितने ही शर्मिंदा करने वाले नजारे देखने पड़ेंगे। इस आदर्श -विरोध का अंत ही कर देना अच्छा है। मुमकिन है, मेरा जीवन उनके तय रास्ते में बाधक हो। भगवान मुझे ताकत दे! सीख इस कहानी का सार यह है कि हमारी सोच और हरकतों का असर हमारे आसपास के लोगों पर, खास तौर से परिवार पर सबसे ज्यादा होता है

और उसका खामियाजा भी उन्हें ही भरना पड़ता है। दयाकृष्ण मेहता अपने पद के लालच में सही गलत का फ़र्क भूलकर काम कर रहे थे, यह सोचे बिना की उसका असर उनके परिवार पर क्या होगा या उसका खामियाजा उनके परिवार को केसे चुकाना पड़ेगा। इसी कारण उन्हें अपने बेटे बालकृष्ण की मौत का दुख सहना पड़ा।

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