SHANTI by Munshi premchand.

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About

स्वर्गीय देवनाथ मेरे बहुत अच्छे दोस्तों में से एक थे। आज भी जब उनकी याद आती है, तो उनके साथ बिताए हुए अच्छे समय भी याद आते हैं, और में कहीं अकेले में जाकर रो लेता हूँ। मैं लखनऊ में रहता था और बह दिल्ली में, जोकि 200-250 मील की दूरी पर है। लेकिन शायद ही ऐसा कोई महीना हो जब हम मिलें न हों। वह आज़ाद स्वभाव के, हँसी मजाक करनेवाले, अच्छे दिल के, दोस्तों पर जान लूटाने वाले आदमी थे, जिन्होंने अपने और दूसरों में कभी अंतर नहीं किया। उन्होंने दुनिया या दुनियादारी को समझने की कभी कोशिश नहीं की। उनकी जिंदगी में ऐसे बहुत से समय आए, जब उन्हें होशियार हो जाना चाहिए था।

दोस्तों ने उनकी सरलता का गलत फायदा उठाया, कई बार उन्हें बेइज्जत होना पड़ा, लेकिन उन्होंने जैसे जिंदगी से कुछ न सीखने की कसम खा रखी हो। लेकिन वह कभी नहीं बदले, उनकी दुनिया में शक, चालाकी और धोखे की कोई जगह नहीं थी, उनके लिए सब अपने थे। मैंने उन्हें कई बार समझाना चाहा लेकिन उन पर कोई असर नहीं हुआ । मुझे कभी-कभी यह चिंता होती थी कि अगर वह नहीं बदले तो उनके साथ क्या होगा? लेकिन परेशानी यह थी कि उनकी बेबी गोपा भी उन्हीं की तरह थी। हमारी बीवियों में जो समझ होती है जिससे वह हमेशा अपने पतियों की लापरवाही पर रोक लगाती हैं वह उन में नहीं थी। यहाँ तक उ उनमें सजने सवरने की भी कोई इच्छा नहीं थी। इसलिए जब देवनाथ के गुजरने की खबर पा कर में दिल्ली पहुंचा, तो घर में बरतन और मकान को छोड़कर कोई संपत्ति नहीं थी।

और अभी उनकी इतनी उम्र ही नहीं थी, कि वह पैसा बचाने के बारे में सोचते। वह तो अभी 40 के भी नहीं हुए थे। हालांकि बचपना उनके स्वभाव में था, लेकिन इस उम्र में तो सभी बेफिक्र होते हैं। उनकी एक लड़की के बाद दो लड़के थे, जो कि कम उम्र में ही धोखा दे गए। और अब बस लड़की का बचा होना ही, इस पूरे मामले में सबसे दुखी करने वाला भाग था। उनकी हालत को देखते हुए, उनके परिवार को चलाने के लिए महीने में 200 ज्यादा रूपये की जरूरत थी। लड़की की भी शादी दो-तीन साल में करनी पड़ेगी। यह सब कैसे होगा, यह सोच कर मैेरे दिमाग ने काम करना बंद कर दिया। में करनी इस मौके पर मुझे पता चला कि जो लोग मतलबी नहीं होते और र मेरे की मदद करते हैं, उनके परिवार की मदद करने वालों की कमी नहीं होती। यह जरूरी भी नहीं, व्योंकि मैंने ऐसे भी लोगों को देखा है, जिन्होंने जिंदगी भर बहुत से लोगों की मदद की, लेकिन उनके बाद उनके परिवार के बारे में किसी ने पूछा तक नहीं। लेकिन जो भी हो, देवनाथ के दौस्तों ने यह अच्छा काम किया कि गोपा का खर्च चलाने के लिए पैसे फिक्स डिपॉजिट करने की बात रखी। एक दो लोग जिनकी बीवियां अब नहीं थीं, उन्होंने शादी करने की भी बात रखी, लेकिन किसी भी साधारण बीवीं की तरह गोपा ने भी स्वाभिमान | मना कर दिया। उसका घर बड़ा था तो उसने घर के आधे भाग को किराए पर चढ़ा दिया। और इससे उन्हें महीने के 50 रूपये मिलने लगे वह उसी से अपना खर्च चलाने लगी। जो कुछ खर्च था, वह सुन्नी की जात से धा। गोपा के अब कोई शोक नहीं थे।

एक महीने बाद, मुझे बिजनेस के सिलसिले में विदेश जाना पड़ा। वहाँ, मेरी सोच के विपरीत, मुझेो 2 साल लग गए। गोपा से चिट्ठी के जरिए बात होती रहती थी, जिससे मुझे पता चला कि चिंता की कोई बात नहीं, वह आराम से रह रहे हैं। लेकिन मुझे यह बाद में पता चला कि गोपा ने मुझे भी बाहर

वाला समझ कर मुझसे सच्चाई छुपाई।

विदेश से सीधा दिल्ली गया। दरवाजे पर पहुंचते ही मुझे रोना आ गया। वहाँ मातम सा माहौल था। जिस कमरे में दोस्तों का भीड़ रहती थी, लौटकर मैं

उसके दरवाजे बंद थे और वहाँ मकड़ी के जाले लग चुके थे। पहली बार देखने पर मुझे ऐसा लगा कि दरवाजे पर देवनाथ खड़े होकर मुस्कुराते हुए मुझे देख रहे हैं। मैं झूठ नहीं बोलता और मुझे भूतों पर विश्वास भी नहीं, लेकिन उस समय में चौक गया और मेरा दिल काँपने लगा, लेकिन दूसरी ही पल वो

गायब हो गया था।

दरवाजा गोपा ने खोला, उसे देख कर मेरा दिल रुक सा गया। मेरे आने की खबर पा कर, उसने नई साड़ी पहन ली थी और बाल भी बना लिए थे। लेकिन

साल म में जो उसने सहा उसे केसे छुपाती? औरतों की जिंदगी में यह वह समय होता है जब वह सबसे सुंदर दिखती हैं। जब उनके लड़कपन और

बचपने की जगह आकर्षण और सुंदरता आ जाती है। लेकिन गोपा की जवानी बीत चुकी थी। उसके चेहरे पर झुर्रियां और दुख की लकीरें थी, जिसे उसकी खुश दिखने की कोशिश भी छुपा नहीं पा रही थी। उसका शरीर बूढ़ा हो गया था और बाल सफेद होने लगे थे।

मैंने दुखी आवाज में पूछा- क्या तुम बीमार थीं, गोपा?,

गोपा ने दुख छुपा कर कहा- नहीं तो, मुझे कभी सिर दर्द भी नहीं हुआ। तो तुम्हारी यह क्या हालत है? बिल्कुल बूढ़ी हो गयी हो।’

तो जवानी लेकर करना ही क्या है? मेरी उम्र भी तो पैंतीस के ऊपर हो गयी!

पैंतीस की उम्र तो बहुत होती।’ नहीं

हाँ उनके लिए जो बहुत दिन जीना चाहते है। मैं तो चाहती हूँ जितनी जल्द हो सके मर जाऊँ। बस सुन्नी के शादी की चिंता हैं। इससे छुटटी पा जाऊँ

मुझे जिन्दगी की की परवाह न रहेगी।

अब पता चला कि जो आदमी उस मकान में किराए से रहते थे। वह कुछ ही दिन बाद ट्रांसफर होके चले गए थे, तब से उन्हें कोई दूसरा किराएदार नहीं मिला। यह जान कर मेरा दिल टूट गया। इतने दिन इन बेचारों का खर्चा केसे चला यह सोच कर ही बहुत दुख होता है।

मैंने उखडे मन से कहा- लेकिन तुमने मुझे बताया क्यों नहीं? क्या मैं बिलकुल गैर हूँ? गोपा ने शर्मिंदा होकर कहा- नहीं नहीं यह बात नहीं है। तुम्हें गैर समझुंगी तो अपना किसे समझूगी? मैंने सोचा विदेश में तुम्हारी अपनी परेशानी होंगी

तो तुम्हें परेशान क्यों करूँ? किसी न किसी तरह दिन कट ही गये। घर में और कुछ न था, तो थोड़े-से गहने तो थे ही। अब सुनीता की शादी की चिंता है। पहले मैंने सोचा था, इस मकान को बेच दूंगी, बीस-बाइस हजार मिल जायेंगे। शादी भी हो जायेगी और कुछ मेरे लिए बचा भी रहेगा; लेकिन बाद को मालूम हुआ कि मकान पहले ही गिरवी हो चुका है और उस पर सुद मिलाकर बीस हजार हो गये हैं।

महाजन ने यह एहसान किया कि मुझे घर से नहीं निकाता। इधर से तो अब कोई आशा नहीं है। बहुत पॉव जोड़ने पर संभव है, महाजन से दो ढाई

हजार मिल जाये। इतने में क्या होगा? इसी फिक्र में धुली जा रही हूँ। लेकिन मैं भी कितनी मतलबी हूँ, न तुम्हें हाथ मुँह धोने को पानी दिया, न कुछ खाने

के लिए लायी और अपना दुखड़ा लेकर बैठ गई। अब आप कपड़े उतारिये और आराम से बैठिये। कुछ खाने को लाऊँ, खा लीजिए, तब बातें हों। घर पर

तो सब कुशल है?

मैंने कहा- मैं तो सीधे बम्बई से यहाँ आ रहा हूँ। घर नहीं गया।

गोपा ने मुझे गुस्से से देखा, पर उस गुस्से के पीछे बहुत अपनापन था। मुझे ऐसा लगा, उसके चहरे की झुर्रियाँ मिट गयी हैं। चेहरे की रंगत वापस आ गई।

उसने कहा-इसका नतीजा यह होगा कि तुम्हारी बीवी तुम्हें कभी यहाँ नहीं आने देगी।

मैं किसी का गुलाम नहीं हूँ।

किसी को अपना मुलाम बनाने के लिए पहले खुद भी उसका गुलाम बनना पड़ता है।

ठंड की शाम देखते ही देखते अंधेरी हो गई। सुन्नी लालटेन लेकर कमरे में आयी। दो साल पहले की मासून और नाजुक बच्ची सुन्दर लड़की बन गयी थी,

जिसकी हर हरकत और बात, उसके स्वाभिमानी होने का सबूत दे रही थी। जिसे मैंने अपनी गोद में खिलाया था, उसे आज आँखें उठा देख भी नहीं पाया और वह जो मेरे गले लग कर खुश होती थी, आज मेरे सामने खड़ी भी न रह सकीं। जैसे वह मुझसे कोई चिज छिपाना चाहती है, और जैसे में उस चिंज

छिपाने दे रहा हूँ।

मन पूछा- अब तुम किस क्लास में पहुँची सुनी? हुए जवाब दिया- दसवीं क्लास में हूँ।

उसने सिर धर की भी कुछ काम-काज करती हो?

अम्मा करने नहीं देती।

गोपा बोली- मैं नहीं करने देती या खुद काम दूर भागती है?

सुन्नी मुँह फेरकर हँसती हुई चली गयी। माँ की लाडली लड़की थी। जिस दिन वह गृहस्थी का काम करती, उस दिन शायद गोपा रो रोकर आँखें फोड़ ह खुद लड़की को कोई काम न करने देती थी, मगर सबसे शिकायत करती थी कि वह कोई काम नहीं करती। यह शिकायत भी उसके प्यार का

लेती। वह ही एक करिश्मा था। हमारी मर्यादा हमारे बाद भी जीवित रहती है।

खाना खा के लेटा, तो गोपा ने फिर सुन्नी के शादी की तैयारियों की बात छेड़ दी। इसके सिवा उसके पास और बात ही क्या थी। लड़के तो बहुत हैं। लड़की को यह सोचने का मौका क्यों मिले कि पिता होते तो शायद मेरे लिए इससे अच्छा घर पति ढूँढते। फिर गोपा

हैं, लेकिन अच्छे डरते लाला मुरारी लाल के बब जिक्र किया।

लड़के

मिलते

ने डरते

मैंने चकित होकर उसकी तरफ देखा। मदारीलाल पहले इंजीनियर थे, अब पेंशन पाते थे। लाखों रूपया जमा कर लिये थे, लेकिन अभी भी लालची

गोपा ने घर भी वह जो उसकी पहुंच से बाहर था।

मैंने ऐतराज किया- मदारीलाल तो बहुत बुरा इंसान है। थे।

गोपा ने दाँतों तले जीभ दबाकर कहा- अरे नहीं भैया, तुमने उन्हें पहचाना न होगा। मेरे ऊपर बड़े दयालु हैं। कभी-कभी आकर कुशल- समाचार पूछ लड़का ऐसा होनहार है कि मैं तुमसे क्या कहूँ। फिर उनके यहाँ कमी किस बात की है? यह ठीक है कि पहले वह खूब रिश्वत लेते थे; लेकिन यहाँ धर्मात्मा सुनी उन्हें पसंद आ गयी है।

कौन है? कौन मौका पाकर छोड़ देता है? मदारीलाल ने तो यहाँ तक कह दिया कि वह मुझसे दहेज नहीं चाहते, सस लड़की चाहते हैं। मुझे गोपा की सरलता पर दया आयी; लेकिन मैंने सोचा क्यों इसके मन में किसी के लिए शक पैदा करूँ। संभव है मदारीलाल अब वैसी ना हो, इंसान बदलता रहता है।

अभी भी पूरी तरह सहमत नहीं था- मगर यह तो सोचो, उनमें और तुममे कितना अंतर शायद अपना सब कुछ दे कर भी उन्हें खुश ना कर सको।

लेकिन गोपा के मन में बात जम गयी थी। सुनी को बह ऐसे घर में चाहती थी, जहाँ वह रानी बनकर रहे।

दूसरे दिन सुबह मैं मदारीलाल के पास गया और उनसे मेरी जो बातचीत हुई, उसने मुझे मोहित कर दिया। वह कभी लालची रहे होंगे लेकिन अभी वह मुझे अच्छे दिल के, दयालु और नग्न लगे। वो बोले, भाई साहब, मैं देवनाथ जी से परिचित हूँ। बहुत अच्छे आदमी थे। उनकी लड़की मेरे घर आये, यह मेरा सौभाग्य है। आप उनकी माँ से कह दें, मदारीलाल को उनसे कुछ नहीं चाहिए। ईश्वर का दिया हुआ मेरे घर में सब कुछ है, मैं उन पर दया नहीं कर रहा।

मेरे दिल का बोझ उतर गया। हम सुनी-सुनायी बातों से दुसरों के बारे में कैसी गलत सोच बना लेते हैं, इसका बहुत अच्छा अनुभव हुआ। मैने आकर गोपा को बचाई दी। यह तय हुआ कि गर्मियों में शादी कर दिया जाए।

ये चार महीने गोपा ने शादी की तैयारियों में काटे। मैं महीने में एक बार जरूर उससे मिल आता; पर हर बार दुखी होकर लौटता था। गोपा ने न जाने अपने घर की इज्जत को कितना बड़ा समझ लिया था। पगली को यह गलतफहमी थी कि उसकी खुशी शहर में अपनी यादगार छोड़ जायेगा। वो यह नहीं जानती थी कि इस शहर में ऐसी चिजें रोज होती हैं और भुला दि जाती हैं। शायद वह दुनिया को यह दिखाना चाहती है कि इस खराब हालत में भी वह कितना अच्छा कर सकती है। बात बात पर उसे देवनाथ की याद आती। वह होते तो यह काम यों न होता, यों होता, यह सोच कर रोती।

यह सच है, मदारीलाल सज्जन हैं, लेकिन गोपा का अपनी बेटी के लिए भी कुछ जिम्मेदारी है। ऐसा तो नहीं कि उसके दस-पाँच बेटियां हैं। वह तो दिल खोलकर अरमान पूरा करेगी! सुन्नी के लिए उसने जितने गहने और कपड़े बनवाए थे, उन्हें देखकर मुझे आश्चर्य होता था। जब देखो कुछ-न-कुछ सील रही है, कभी सुनारों की दुकान पर बैठी हुई है, कभी मेहमानों के खातिरदारी की तैयारी कर रही है।

मुहल्ले में ऐसा शायद ही कोई संपन्न इंसान होगा, जिससे उसने कुछ कर्ज न लिया हो। वह इसे कर्ज समझती थी, पर देने वाले दान समझकर देते थे। सारा मुहल्ला उसका मददगार था। सुन्नी अब मुहल्ले की बेटी थी। गोपा की इज्जत सबकी इज्जत है और गोपा के लिए तो नींद और आराम हराम था। दर्द से सिर फटा जा रहा है, आधी रात हो गयी मगर वह बैठी कुछ-न-कुछ सील रही है, या इस कोठी का धान उस कोठी कर रही है। कितनी ममता भरी इच्छा थी, जो कि देखने वालों में इज्जत पैदा कर देती थी।

अकेली औरत और वह भी आधी जान की। क्या- क्या करे। जो काम दूसरों पर छोड़ देती है, उसी में कुछ न कुछ कसर रह जाती है, पर उसकी हिम्मत है कि किसी तरह नहीं मानती। पिछली बार उसकी दशा देखकर मुझसे रहा न गया। बोला- गोपा देवी, अगर मरना ही चाहती हो, तो शादी हो जाने के बाद मरो। मुझे डर है कि तुम गोपा का मुरझाया हुआ चहरा खिल गया। बोली- उसकी चिंता न करो भैया विधवा की जिंदगी बहुत लंबी उसके पहले ही न चल होती है। लेकिन मेरी कामना यही है कि सुन्नी का घर बसा कर में भी चल दें। अब और जीकर क्या करगी, सोचो। क्या करूँ, अगर किसी तरह का खलल पड़ गया तो मेरी ही बदनामी होगी। इन चार महीनों में मुश्किल से घंटा भर सोती हूँगी। नींद ही नहीं आती, पर मैरा मन खुश है। मैं म या जीऊँ मुझे इस बात की शांति तो होगी कि सुन्नी के लिए उसके पिता जो कर सकते थे, वह मैंने कर दिया। मदारीलाल ने अपनी अच्छाई दिखाई, तो गुझे भी तो अपनी इज्ज़त रखनी है। एक औरत ने आकर कहा बहन, जरा चलकर देख लो, चाशनी ठीक हो गयी है या नहीं। गोपा उसके साथ चाशनी देखने चली गयी और दूसरे ही पल आकर बोली- जी चाहता है, सिर पीट लूँ। तुमसे जरा बात करने लगी, उधर चाशनी इतनी कड़ी हो गयी कि लडडू दाँतों से लड़ेंगे। किससे क्या कहूँ! र कहा तुम बेकार का झंझट कर रही हो। क्यों नहीं किसी हलवाई को बुलाकर मिठाई बनवाया लेती। और तुम्हारे यहाँ मेहमान ही कितने आएंगे, जिनके लिए इतना सब कर रही हो। दस पाँच लोगों की मिठाई उनके लिए बहुत होगी।

गोपा ने उदास नजरों से मेरी ओर देखा। मेरी यह बात उसे बुरी लगी। इन दिनों उसे बात बात पर गुस्सा आ जाता था। बोली- भैया, तुम ये बातें न समझोगे। तुम्हें न माँ बनने का मौका मिला, न पत्नी बनने का। सुन्नी के पिता का कितना नाम था, कितने आदमी उनके सहारे जीते थे, क्या यह तुम नहीं जानते, अब यह मेरी जिम्मेदारी है। तुम भरोसा नहीं करोगे नास्तिक जो हो, पर में तो उन्हें हमेशा अपने अंदर बैठा पाती हूँ, जो कुछ कर रहे हैं वह कर रहे हैं। में बेवकूफ औरत भला अकेली क्या करती। वही मेरी मदद करते हैं वही मेरे रोशनी हैं। यह समझ लो कि यह शरीर मेरा है पर इसके अंदर जो आत्मा है वह उनकी है। जो कुछ हो रहा है उनके कहे से हो रहा है तुम उनके दोस्त हो। तुमने अपने सैकड़ों रूपये खर्च किये और इतना हैरान हो रहे हो। मैं तो उनकी सहगामिनी हूँ. लोक में भी, परलोक में भी।

मैं अपना सा मुँह लेकर गया।

जून में शादी हो गई। गोपा ने बहुत कुछ दिया और अपनी हैसियत से बहुत ज्यादा दिया, लेकिन फिर भी, उसे संतोष न हुआ। आज सुन्नी के पिता होते तो न जाने क्या करते, यह बोल रोती रही। ठंडी फिर दिल्ली गया। मैंने सोचा कि अब गोपा सुखी होगी। लड़की के घर और पति दोनों अच्छे हैं। गोपा को इसके सिवा और क्या चाहिए। लेकिन में में सुख उसके भाग्य में ही न था। अभी कपड़े भी न उतार पाया था कि उसने अपना दुखड़ा शुरू कर दिया- भैया, घर परिवार सब अच्छा है, सास-ससुर भी अच्छे हैं, लेकिन जमाई निकम्मा निकला। सुन्नी बेचारी रो-रोकर दिन काट रही है तुम उसे देखोगे, तो पहचान नहीं पाओगे। उसकी परछायी मात्र रह गयी है। अभी कई दिन हुए, 181 उसकी हालत देखकर दुख हो रहा था। जैसे जीना भुल गई हो, न खुद का होश है न कपड़े-लते का। मेरी सुन्नी का इतना बुरा हाल होगा, आयी हुई थी, यह तो सपने में भी नहीं सोचा था। बिल्कुल गुमसुम हो गयी है। कितना पूछा- बेटी तुमसे वह क्यों नहीं बोलता, किस बात पर नाराज है, लेकिन कुछ जवाब ही नहीं देती। बस, आँखों से आँसू बहते हैं, मेरी सुनी की जिंदगी खराब हो गई।

मैंने कहा- तुमने उसके घर वालों से पता नहीं ल लगाया।

लगाया क्यों नहीं भैया, सब हाल मालूम हो गया। लड़का चाहता है, मैं जो भी करू, सुन्नी मेरी पूजा करती रहे। सुन्नी भला इसे क्यों सहने लगी? उसे तो हम जानते हो, कितनी अभिमानी है। वह उन औरतों में से नहीं है, जो पति को देवता समझती हैं और उसका गलत व्यवहार सहती रहती है। उसने हमेशा दुलार और प्यार पाया है। पिता भी उस देते थे। मैं आँख की पुतली समझती थी। पति मिला बिगड़ा हुआ, जो आधी आधी रात तक घूमता प्यार पायी है। पिता भी उसे पर जान । फिरता है। दोनों में क्या बात हुई यह कौन जान सकता है, लेकिन दोनों में कोई गाँठ पड़ गयी है। न वो सुन्नी की परवाह करता है, न सुननी उसकी परवाह करती है, मगर वह तो अच्छे से है, सुन्नी दुख झेल रही है। उसके लिए सुन्नी की जगह मुक्नी है, सुन्नी के लिए उसकी बेइज्जती और रोना है है। मैंने कहा- लेकिन तुमने सुन्नी को समझाया नहीं। उस लड़के का क्या बिगड़ेगा? इसकी तो जिन्दगी खराब हो जायेगी। में पापा की आवाज में आज भर आए, बाली- भया,किस दिल से समझाऊँ? सुन्नी को देखकर मुझे बहुत दुख होता है। बस यही जी चाहता है कि इसे अपने के इसे कोई आँख उठा कर देख भी न सके। सुन्नी गवार होती, बोलने वाली होती, आलसी होती, तो समझाती भी। वया यह मैं तो खुद यह अपमान न सह सकती। पति और में समझाऊँ कि तेरा पति गली-गली मुँह काला करता फिरे, फिर भी तू उसकी पूजा किया कर? मैं तोौ खुद यह अपमान न सह सकती। पति और पत्नी में शादी की पहली शर्त यह है कि दोनों पूरी तरह से एक-दूसरे के हो जायें। ऐसे आदमी तो कम हैं, जो पत्नी को जरा सा भी दुखी होते देखकर शांत रह सकें, पर ऐसी औरतें बहुत आजादी देती हैं। सुन्नी उन औरतों में से नहीं है। वह अगर समर्पण करती है तो समर्पण चाहती भी है, और यदि ने ऐसा नहीं किया, तो वह उससे कोई रिश्ता नहीं रखेगी, चाहे उसका सारा जीवन रोते कट जाये।

यह कहकर गोपा भीतर गयी और एक सिंगारदान लाकर उसके अंदर के गहने दिखाती हुई बोली- सुन्नी इसे अब की यहीं छोड़ गयी। इसीलिए आयी थी। ये वे गहने हैं जो मैंने न जाने कितना मुश्किल से बनवायें थे। इसके पीछे महीनों मारी मारी फिरी थी। ये कह लो कि भीख माँगकर जमा किये थे। सुन्नी अब इनकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखती! पहने तो किसके लिए? सिंगार करे तो किस पर? पाँच बक्से कपड़ों के दिये थे। कपड़े सीलते-सीलते मेरी आँखें फूट गयी। यह सब कपड़े उठाती लायी। इन चीजों से उसे नफरत हो गयी है। बस, कलाई में दो चूड़ियाँ और एक उजली साड़ी; यही उसका सिंगार है।

मैंने गोपा को दिलासा दिया- मैं जाकर केदारनाथ से मिलँगा। देखें तो, वह कैसा आदमी है।

गोपा ने हाथ जोड़कर कहा- नहीं, भूलकर भी न जाना; सुन्नी सुनेगी तो जान ही दे देगी। अभिमान की पुतली ही समझो उसे। रस्सी समझ लो, जिसके जल जाने पर भी बल नहीं जाते। जिन पैरों से उसे ठुकरा दिया है, उन्हें वह कभी न सहलायेगी। उसे अपना बनाकर कोई चाहे तो नौकर बना ले, लेकिन

जोर जबरजस्ती तो उसने मेरा न सही, दूसरों का क्या सहेगी। मैंने गोपा से उस समय कुछ न कहा, लेकिन मौका पाते ही लाला मदारीलाल से मिला। में राज का पता लगाना चाहता था। संयोग से पिता और बेटा,

दोनों ही एक जगह मिल गये। मुझे देखते ही केदार ने इस तरह झुककर मेरे पैर छुए कि मैं उसकी अच्छे व्यवहार से खुश हो गया। तुरंत भीतर गया चाय, मुरब्बा और मिठाइयाँ लाया। इतना शांत, इतना अच्छे व्यवहार वाला, इतना विनम्र लड़का मैंने नहीं देखा था। कोई यह सोच भी नहीं सकता और कि इसके अंदर और बाहर में कोई अंतर सकता है। है जब तक रहा सिर झुकाये बैठा रहा। बुराई तो उसे छू भी नहीं गयी थी। जब केदार टेनिस खेलने गया, तो मैंने मदारीलाल से कहा- केदार बाबू तो बहुत अच्छे स्वभाव के लगते हैं, फिर पति पत्नी में इतना मनमुटाव क्यों हो गया है।

मदारीलाल ने एक पल विचार करके कहा इसका कारण इसके सिवा और क्या बताऊँ कि दोनों अपने माँ-पिता के लाड़ले हैं, और प्यार लड़कों को अपने मन का बना देता है। मेरा सारा जीवन मुश्किलों में कटा। अब जाकर जरा शांति मिली है। मजे करने का कभी मौका ही न मिला। दिन भर मेहनत करता था, रात को लेटते ही सो जाता था। तबीयत भी अच्छी न धी, इसलिए बार-बार यह चिंता सवार रहती थी कि पैसे जोड़ लूँ। ऐसा न हो कि मेरे पीछे बाल बच्चे भीख माँगते फिरे। नतीजा यह हुआ कि इन महाशय को मुफ्त का धन मिला तो बिगड़ गए। शराब पीने लगा। फिर ड्रामा खेलने का शोक हुआ। धन की थी ही नहीं, उस पर माँ-पिता के अकेले बेटे। उनकी खुशी ही हमारे जीवन का स्वर्ग थी। पढ़ने-लिखने के बजाए, मौज मस्ती की इच्छा बढ़ती गयी। आदतें और बिगड़ीं, तो अपने जीवन मैंने यह रंग देखा तो मुझे चिंता हुई। सोचा, शादी कर दूं, हो जायेगा। गोपा देवी का पैगाम आया, तो मैंने तुरंत स्वीकार कर लिया। मैं सुन्नी को देख चुका था। सोचा, ऐसी सुंदर पत्नी पाकर इनका मन स्थिर हो जायेगा, पर वह भी लाड़ली लड़की थी-जिट्टी, नादान, आदर्शवादी। सहना तो उसने सीखा का ड्रामा खेलने लगे। ही नहीं। समझौता जीवन में कितना जरूरी है, इसकी उसे खबर ही नहीं। दोनों एक दूसरे से भीड़ गए। वह अभिमान से हराना करना चाहती है, और यह बेइज्जती से, यही बात है। और साहब मैं तो बहु को ही अचिक दोषी समझता हूँ। लड़के तो मनचले होते हैं लड़कियाँ स्वभाव से ही सुशील होती हैं।

और अपनी जिम्मेदारी समझती हैं। उसमें ये गुण ही नहीं। केसे सब ठीक होगा भगवान ही जाने।

सुन्नी अंदर से आ गयी। वह खुद की परछाई बस रह गई थी, जैसे किसी अच्छे संगीत की सिर्फ गुंज बची हो। सोना जलकर राख हो गया था। टूटी हुई आशाओं का इससे अच्छा उदाहरण नहीं हो सकता। शिकायत करती हुई बोली- आप न जाने कब से बैठे हुए हैं, मुझे खबर तक नहीं और शायद आप बाहर ही बाहर चले भी जाते?

मैंने आँसुओं को रोकते हुए कहा- नहीं सुन्नी, यह कैसे हो सकता था तुम्हारे पास आ ही रहा था कि तुम खुद आ गयी।

मदारीलाल कमरे के बाहर अपनी कार की सफाई करने लगे । शायद मुझे सुन्नी से बात करने का मौका देना चाहते थे।

सुन्नी ने पूछा-अम्माँ तो अच्छी तरह है?

हाँ अच्छी हैं। तुमने अपनी यह क्या हालत बना रखी है।

‘मैं अच्छी तरह से हूँ।

यह बात क्या है? तुम लोगों में यह क्या अनबन है। गोपा अपनी जान दिये डाल रही है। तुम खुद मरने की तैयारी कर रही हो। कुछ तो समझदारी से

काम लो।’ सुनी के माथे पर बल पड़ गये- आपने बेकार ही ये बात छेड़ दिया चाचा जी! मैंने तो यह सोचकर अपने मन को समझा लिया कि मैं अभागिन हूँ।

उसका हल मेरे बस के बाहर है। मैं ऐसे जीने से मरना कहीं अच्छा समझती हूँ, जहाँ अपनी कदर न हो। मैं ईमानदारी के बदले में ईमानदारी चाहती हैं। जीवन का कोई दूसरा रूप मेरी समझ में नहीं आता। इस बात में किसी तरह का समझौता करना मेरे लिए असभव है। नतीजे की मैं परवाह नहीं करली। लेकिन…

नहीं चाचाजी, इस बारे में अब कुछ न कहिए, नहीं तो मैं चली जाऊँगी।’

आखिर सोचो तो…

मैं सब सोच चुकी और तय कर चुकी। जानवर को इंसान बनाना मेरी बस के बाहर इसके बाद मेरे लिए अपना मुँह बंद करने के सिवा और क्या रह गया था?

मई का महीना था। मैं मसूर गया हुआ था कि गोपा का तार पहुँचा-‘ तुरंत आओ, जरूरी काम है। मैं घबरा तो गया लेकिन इतना पक्का था कि कोई दुर्घटना नहीं हुई है। दूसरे दिन दिल्ली जा पहुँचा। गोपा मेरे सामने आकर खड़ी हो गयी, निराश, गूंगी, बेजान, जैसे टीबी की रोगी हो।

मैंने पूछा कुशल तो है, मैं तो घबरा उठा। उसने बुझी हुई आँखों से देखा और बोली- सच!

से । सुन्नी तो कुशल से है।

हाँ, अच्छी तरह है।

और केदारनाथ?’ वह भी अच्छी तरह है।

तो फिर बात क्या है?

कुछ तो नहीं।

तुमने तार दिया और कहती हो- कुछ तो नहीं?

दिल घबरा रहा था, इससे तुम्हें बुला लिया। सुन्नी को किसी तरह समझाकर यहाँ लाना है। मैं तो सब कुछ करके हार गयी।

क्या इधर कोई नयी बात । हो गयी।

नयी तो नहीं है, लेकिन एक तरह में नयी ही समझो, केदार एक ऐक्ट्रेस के साथ कहीं भाग गया। एक हफ़्ते से उसका कहीं पता नहीं है। सुन्नी से कह गया है- जब तक तुम रहोगी घर में नहीं आऊँगा। सारा घर सुन्नी का दुश्मन बन गया है, लेकिन वह वहाँ से टलने का नाम नहीं लेता। सुना है केदार अपने पिता के दस्तखत बनाकर कई हजार रूपये बैंक से ले गया है।

तुम सुन्नी से मिली थीं?

हां, दिन से बराबर जा रही हूँ।

वह नहीं आना चाहती, तो रहने क्यों नहीं देती।

वह वहाँ घुट घुटकर मर जायेगी।

तुरंत ही लाला मदारीलाल के घर चला। हालाँकि मैं जानता था कि सुन्नी किसी तरह न आयेगी, मगर वहाँ पहुँचा तो देखा कुहराम मचा हुआ है। मेरा कलेजा धक से रह गया। वहाँ तो अर्थी सज रही थी। मुहल्ले के सैकड़ों आदमी जमा थे। घर में हाय! हाय!’ की रोने की आवाज आ रही थी। यह सुन्नी का लाश थी।

मदारीलाल मुझे देखते ही मुझसे पागल की तरह लिपट गये और बोले भाई साहब, मैं तो लुट गया। लड़का भी गया, बहू भी गयी, जिन्दगी ही बरबाद हो गयी। मालूम हुआ कि जब से केदार गायब हो । | था, सुन्नी और भी ज्यादा उदास रहने लगी थी। उसने उसी दिन अपनी चूड़ियाँ तोड़ डाली थीं और माँग का सिंदूर पोंछ डाला था। सास ने जब आपत्ति की, तो उसे बुरा भला कहा। मदारीलाल ने समझाना चाहा तो उन्हें भी जली-कटी सुनायी। ऐसा लगता था-पागल हो गई लोगों ने उससे बोलना छोड़ दिया था। आज सुबह यमुना नहाने गयी। अंधेरा था, सारा घर सो रहा था, किसी को नहीं जगाया। जब दिन चढ़ गया और बहू घर में न मिली, तो उसकी तलाश होने लगी। दोपहर को पता लगा कि यमुना गयी है। लोग उधर भागे। वहाँ उसकी लाश मिली। पुलिस आयी, शद की परीक्षा हुई। अब जाकर लाश मिली है। मैं कलेजा थामकर बैठ गया। हाय, अभी थोडे दिन पहले जो सुनी डोली में बैठ कर आयी थी, आज वह चार के कंधे में अर्थी के साथ हो लिया और वहाँ से लौटा, तो रात के दस बज गये थे। मेरे पाँव काप रहे थे। मालूम नहीं, यह खबर पाकर गोपा की क्या हालत होगी।

मर न जाये, मुझे यही डर लग रहा था। सुन्नी उसकी जान थी। उसके जीने का कारण थी। उस दुखिया के बाग में यही पौधा बचा था। उसे वह खून सींच-सींचकर पाल रही थी। उसका एक सपना था, अपनी बेटी को फलते फूलते देखना, हंसी खुशी अच्छी जिंदगी जीते देखना, अपना खुद का परिवार बनाते देखना, लेकिन आज बेदर्द किस्मत ने उस जीवन को जड़ से उखाडकर फेंक दिया। और अब उसके जीवन का कोई आधार न था। वह बिन्दू ही मिट गया था, जिस पर जीवन की सारी रेखाएँ आकर इकट्ठा हो जाती थीं। दिल को दोनों हाथों से थाने, मैंने जंजीर खटखटायी। गोपा एक लालटेन लिए निकली। मैंने गोपा के मुख पर एक नये आनंद की झलक देखी।

मेरी दुख भरा चहरा देखकर उसने ममता से मेरा हाथ पकड़ लिया और बोली- आज तो तुम्हारा सारा दिन रोते ही कटा। अर्थी के साथ बहुत से आदमी रहे होंगे। मेरे जी में भी आया कि चलकर सुन्नी के अंतिम दर्शन कर लूँ। लेकिन मैंने सोचा, जब सुन्नी ही न रही, तो उसकी लाश में क्या रखा है। इसलिए नही गयी।

मैं आश्चर्य से गोपा का मुँह देखने लगा। तो इसे यह बुरी खबर मिल चुकी है। फिर भी यह शांति और अटल धीरज! बोला- अच्छा किया, नही गयी रोना ही तो था।

हाँ, और क्या? रोयी यहाँ भी, लेकिन तुमसे सच कहती हैं, दिल से नहीं रोयी। न जाने कैसे आँसू निकल आए। मुझे तो सुन्नी की मौत से खुशी हुई। दुखिया अपनी मान मर्यादा लिए संसार से विदा हो गयी, नहीं तो न जाने क्या क्या देखना पड़ता। इसलिए और भी प्रसन्न हूँ कि उसने अपनी आन निभा दी। पत्नी के जीवन में प्यार न मिले तो उसका अंत हो जाना ही अच्छा। तुमने सुन्नी का चहरा देखा था? लोग कहते हैं, ऐसा जान पड़ता था- मुस्करा रही है।

मेरी सुन्नी सचमुच देवी थी। भैया, आदमी सिर्फ रोते रहने के लिए थोड़े ही जीना चाहता है। जब मालूम हो गया कि जीवन में दुःख के सिवा कुछ नहीं है, तो आदमी जीकर क्या करे। किसलिए जिये? खाने और सोने और मर जाने के लिए? यह

मैं नहीं कहती कि मुझे सुन्नी की याद न आयेंगी और मैं उसे याद करके रोऊँगी नहीं। लेकिन वह शोक के आँसु न होंगे। बहादुर बेटे की माँ उसकी वीरगति का याद न पर खुश होती है। सुन्नी की मौत में क्या गौरव है? में ऑसू बहाकर उस गोरव का अपमान कैसे कर? बह जानती है, और चाहे सारा संसार कुछ कम उसकी बुराई करे, उसकी माँ तारीफ ही करेगी।

उसकी आत्मा से यह खुशी भी छीन लूँ? लेकिन अब रात ज्यादा हो गयी है। ऊपर जाकर सो लो। मैंने तुम्हारी चारपाई बिछा दी है, मगर देखो, अकेले पड़े-पड़े रोना नहीं। सुन्नी ने वही किया, जो उसे करना चाहिए था। उसके पिता होते, तो आज सुक्ी की मूरत बनाकर पूजते। में ऊपर जाकर लेटा, तो मेरे दिल का बोझ बहुत हल्का हो गया था, मगर रह-रहकर यह शक हो रहा था कि गोपा की यह शांति उसकी अपार दुख का ही रूप तो नहीं है?

सीख – मुशी प्रेमचंद जी के द्वारा लिखी गई यह कहानी पुराने भारत के समाज और उसकी बुराइयों को बताती है। कहानी से हमें पता चलता है कि समाज में अच्छे इंसान की कोई कीमत नहीं होती। किस तरह अकेली औरत को केवल दीन की तरह देखा जाता है। किस तरह खराब पालन-पोषण को, शादी के जरिए ठीक करने की कोशिश की जाती है और घर में जो भी परेशानी हो उसकी जिम्मेदार केवल घर की औरतों को माना जाता है। इस कहानी में मुंशी प्रेमचंद ने गोपा की मदद से यह बताने की कोशिश की है कि समाज में दिखावा किस तरह फैला हुआ है। जरूरत ना होते हुए भी गोपा ने उधार लेकर अपनी बेटी की शादी बड़े रूप से की और बहुत सारा दहेज दिया. किस तरह गोपा ने अपनी बेटी को खोने का दुख और उसके गलत कदम को वीरगति का नाम देकर छुपाती रही। एक और जरूरी बात इस कहानी से सीखने को मिलती है, वह है रिश्ते को निभाना। सुनीता और केदार, दोनों ने ही अपने रिश्ते को या साथी को समझने की कोशिश नहीं की। किसी भी रिश्ते को सफल बनाने के लिए समझ और मेलजोल की जरूरत होती है, जो दोनों ने नहीं दिखाई नतीजा उनका रिश्ता बनने से पहले ही टूट गया।

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