THE MAN WHO WAS NOT THERE by Anil Ananthaswamy.

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ये किताब किसके लिए है

कोई भी जो मीडिया के साथ अपने संबंध को जानना चाहता हो

-कोई भी जिसकी दिलचस्पी सोशियोलॉजी पर हो

कोई भी ऐसा जिसकी दिलचस्पी साइकोलॉजी पर हो

लेखक के बारे में

इस किताब के लेखक फरहाद मंजू पेशे से मशहूर पत्रकार हैं, ये साल 2014 से लगातार न्यू यॉर्क टाइम्स के लिए भी लिख रहे हैं, वॉल स्ट्रीट ऑफ़ जर्नल के लिए भी ये काम कर चुके है.

मीडिया और गलत जानकारी

अगर मीडिया की बात करें तो हाल ही के सालों में डिजिटल मीडिया ने न्यूज़ को काफी ज्यादा बदल कर रख दिया है. न्यूज़ मीडिया काफी ज्यादा बदलाव के दौर से गुजर रहा है. कुछ बदलाव तो अच्छे है, लेकिन कुछ बदलाव हमारी सोच का फायदा भी उठा रहे है. इस किताब में लेखक बताते हैं कि आज के समय न्यूज़ प्रोड्यूसर के लिए सच को दबा देना कितना आसान हो गया या फिर उसे मोड़कर कुछ भी दिखा देना, आपके दिमाग को मीडिया के लोगों ने पढ़ लिया है.

इन्टरनेट के दौर के पहले मीडिया काफी छोटी हुआ करती थी, कुछ टीवी चैनल्स थे और फिर अखबार या मैगजीन, लेकिन अब बात कुछ और ही है.

आज के समय में सभी के पास इन्टरनेट की सुविधा है, आपको अब न्यूज़ आपके मोबाइल स्क्रीन पर मिल जाती है, वो भी कभी भी और कहीं से भी आ जाती है.

आज के समय में सभी के पास मोबाइल है, डिजिटल कैमरा भी है, कोई कहीं से भी ब्लॉग लिख सकता है, रिकॉर्ड कर सकता है, मतलब जानकारी सबके पास और साधन भी, आज के दौर में अपने चैनल के सभी सम्पादक भी हैं, इसी के साथ फेक न्यूज़ भी बढ़ चुकी है.

कोई भी अपना ओपिनियन लिख सकता है भले ही वो गलत क्यों ना हो,

एक राईट विंग अमेरिकन ग्रुप है जिसका नाम है स्विफ्ट बोट वेटरन, इन्होंने साल 2004 में एक कैम्पेन चलाया था, राष्ट्रपति के चुनाव में इस ग्रुप ने जॉन केरी का विरोध किया था, इस ग्रुप ने जॉन के खिलाफ कैम्पेन चलाया था विएतनाम वार को लेकर, ग्रुप के अनुसार केरी एक गरीब सेनिक है, वह इस तरह के सम्मान के लायक नहीं है. ये दावा सच नहीं था, इसके प्रूफ के तौर पर कई सारे डॉक्यूमेंट मोजूद हैं.

इस गलत जानकारी के बावजूद ये ग्रुप अपनी मंजिल तक पहुंच गया और कैरी को नीचे उतरना पड़ा चुनाव से. ग्रुप के मैसेज को कोई मेन स्ट्रीम मीडिया तवज्जो नहीं दे रहा था, लेकिन इन्होंने वेख साईट बनवाई और कई तरीकों से अपने मैसेज को आगे भेजते रहे.

अंत में जॉर्ज डब्ल्यू युश ने वो चुनाव सिर्फ 2 पॉड्स से जीत लिया था. आज के समय में तो इन्टरनेट इतना ज्यादा प्रभावी हो चुका है कि हमें आन्दोलन के लिए लोगों की ही जरुरत नहीं बची है.

अब कोई भी एक इवेंट होता है, उसकी वीडियो और फोटो कई लोग लेते हैं, हम वो सब चीजें ऑनलाइन जाकर चेक भी कर सकते हैं, लेकिन हमारे विचारों को बदलने के लिए उनके वीडियो भी अब काफी नहीं होते, जो हमने पहले से अपने दिमाग में बनाकर रखे हुए हैं.

उदाहरण के लिए हम 9/1 के आतंकवादी हमले को लेते हैं, काफी बड़े स्तर पर उस घटना की कवरेज हुई थीं, कई फोटोग्राफर्स ने साउथ टावर से जब प्लेन टकराया था, तब की तस्वीर भी ली थी, लेकिन आज भी 42 प्रतीशत अमेरिकन यही सोचते हैं कि उस घटना की इन्वेस्टीगेशन सही से नहीं हुई है.

फिलिप जेहन नाम का एक बिजनेस मैन है, उसने एक थ्योरी निकाली है जिसका नाम उसने दिया है MIHOP. इस थ्योरी के अनुसार अमेरिकन सरकार ने खुद वो हमले करवाए थे. कई लोग इसी थ्योरी को मानते हैं. यहां तक कि कई सारे एक्सपर्ट इस थ्योरी को नकार चुके हैं, पता नहीं कितने वीडियो सामने आ चुके हैं, लेकिन लोगों जो मानना है तो है. इस उदहारण से लेखक ये बताना चाहते हैं कि किसी की सोच बदलने के लिए हर बार वीडियो प्रफ भी मान्य नहीं होता है, इंसानी फितरत ऐसी है कि हमारी सोच, सच्चाई पर भारी पड़ जाती है.

हम हमेशा उसी सच की तलाश में रहते हैं जो हम मानते हैं

हमारी मान्यता या फिर कहें बिलोफ हमे इस कदर मजबूर कर देता है कि हम ये भी फैसला कर लेते है कि हमें पहले क्या देखना है. हम उसी तरह की चीजें देखते हैं जो हमारी मान्यताओं से मेल खाती है. इस पर साल 1967 में रिसर्च भी हुई थी कि आखिर लोग कैसा रियेक्ट करते हैं, जब उनके सामने आप उनकी मान्यताओं अलग चीज परोसी जाती है? उस रिसर्च का रिजल्ट भी यही था कि हम वही देखना चाहते हैं, जो हम मानते हैं. हमें इस बात से फर्क नहीं पड़ता है कि वो चीज़ हमारे लिए अच्छी है कि नहीं है, हम हमेशा हमारे बिलीफ सिस्टम के हिसाब से ही काम करते हैं, हसी सिस्टम के कारण कई बार हम मुसीबत में भी फंस जाते हैं,

क्रीस्टीन इसकी एक दुखद उदाहरण हैं, वो ये सोचती थी कि एचआईवी से एड्स नहीं होता है, यहा तक कि उनको खुद एचआईवी हो चुका था, तब भी वो अपनी मान्यता को ही मानती रही, और अपनी बच्ची को स्तनपान भी करवाती रही, उनकी 3 साल की बच्ची बीमार पड़ गई, उन्होंने डॉक्टर को नहीं बताया कि उन्हें एचआईवी है, क्योंकि वो इसे मानती ही नहीं थी.

अंत में रिजल्ट ये आया कि उनकी बेटी मर गई, और बाद में पता चला कि उसकी मौत एड्स से ही हुई थी, हम अपनी सोच से इतनी बुरी तरह से चिपके हुए रहते हैं कि कई बार इसके बहुत खतरनाक परिणाम हमें भुगतने पड़ते हैं, इसलिए हमें समझना पड़ेगा कि सच क्या है और झूठ क्या है, क्या हम अभी इन दोनों के बीच में फर्क कर पाते हैं या नहीं कर पाते हैं.

क्या आपने कभी नोटिस किया है कि अलग-अलग राजनीतिक विचारधारा के लोग अलग-अलग तरह की न्यूज़ देखना पसंद करते हैं? नहीं किया है तो आप यूएस रिपब्लिकन और डेमोक्रेट्स को देख लीजिये रिपब्लिकन वाले डेमोक्रेट्स को अपेक्षा ज्यादा इनफार्मेशन के पीछे भागते हैं, यो अपने बिलीफ को ज्यादा मानते हैं. ये बात साइकोलॉजी में रिसर्च करने के बाद की जा रही है.

मनोवैज्ञानिक लोविन ने अपने अध्ययन के लिए एक ब्रोशर दोनों पार्टियों के नेताओं को भेजा. इस ब्रोशर में अलग-अलग तरह के मैसेज ये, लोविन ने अपने अध्ययन पाया कि डेमोक्रेट्स ने हर तरह के ब्रोशर का आर्डर दिए हैं लेकिन रिपब्लिकन्स सिर्फ वैसे ब्रोशर का आर्डर दिए हैं जो उनके बीलीफ सिस्टम के हिसाब से मजबूत मैसेज देते थे

आज के दौर में भी आप ये देख सकते होंगे कि हर पार्टी की या फिर हर इसान की एक सोव होती है, जिसे हम विचारधारा भी कहते है, इसी विचारधारा के अनुसार लोग काम करने लगे हैं.

खास बात तो ये है कि रिपब्लिकन्स और डेमोक्रेट्स दोनों ही पार्टियां अलग-अलग तरह की खबरें देखना पसंद करती हैं, लेकिन दोनों ही पार्टिया ये समझती हैं कि मीडिया उनके विपक्ष के साथ काम करती हैं. दोनों पार्टियाँ ये मानती हैं कि मीडिया दूसरी तरफ झुकी हुई है, और इस बात का पुख्ता सबूत किसी के पास नहीं है.

क्या न्यूज़ चैनल भी प्रोपगेंडा चलाते हैं?

गलत जानकारी को फैलाना अब बहुत आसान हो गया है, लेकिन किसी भी मीडिया संस्थान को अपनी विचारधारा को लेकर सतर्क रहना चाहिए, सबसे ज़रूरी है कि न्यूज़ चैनल को ये कोशिश करनी चाहिए कि वो किसी भी कठिन विषय को अपनी विचारधारा के अनुसार ना घुमाएं बल्कि सव को सच ही रहने दें.

अगर आप न्यूज़ देखोगे कि आपकी फेवरेट फुटबाल की टीम कोई चैंपियनशिप जीत गई है तो उसे आप कहीं और से भी कन्फर्म करोगे, अगर टीम का स्पराब साल रहा होगा तो, अगर ये खबर गलत निकली तो फिर आप कभी उस चैनल पर नहीं जाओगे, इसलिए न्यूज़ चैनल को फैक्ट्स के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए.

क्योंकि अब कन्फर्म करना आसान हो गया है तो फिर न्यूज़ चैनल कभी भी अब हाई फीडबैक टॉपिक के साथ खिलवाड़ नहीं करते हैं.

इस बात में भी कोई दो राय नहीं है कि न्यूज़ चैनल रियल फेक्ट्स को दिखाकर अपने गलत आुमेंट्स को प्रूफ करते हैं, ऐसा करते हुए आप कई वेनल्स को देखते होंगे.

कई बार तो हमें मीडिया सीधे तौर पर इफ़ेक्ट कर देता है, लेकिन कई बार चीजें प्लाट की जाती हैं, ये प्लाट करने का काम पीआर फर्स का होता है, ये एक कैम्पेन चलाते हैं, और उस केम्पेन को इस तरह से प्रस्तुत किया जाएगा कि आप गलत चीज को भी सही मानने में मजबूर हो जाएंगे,

आधिकारिक तौर पर नहीं अधिकारिक तौर पर ही सही लेकिन पीआर फर्म हमको इफ़ेक्ट तो काफी कर जाती है, इसकी चौट ऐसी होती है कि दिखती भी नहीं और दर्द भी बहुत देती है. प्रोडक्ट के लॉन्च होने से लेकर उसके आपके दिमाग में बैठाने तक का काम पीआर फर्म्स करती हैं. किसी नेता की इमेज चमकाने का काम भी पीआर फर्म्स करती है.

1990 के दौर में यूएस में नये नियम बने थे, इन नियमों के आने के बाद से सिगरेट कम्पनी को काफी ज्यादा नुकसान हो रहा था. यूएस की एक तम्बाखू की कम्यनी है आरजेआार, ये काम्पनी वहाँ की दूसरी सबसे खड़ी कम्पनी है, इस कंपनी ने उस दौर में अपने पीआर डिपार्टमेंट को एक्टिव कर दिया था. उन्होंने एक कैम्पेन चलाया जिसका नाम दिया गया चाडस इसकी टैग लाइन थी कि स्मोकर्स भी नॉन स्मोकर्स की ही तरह सोसाइटी का हिस्सा हैं, स्मोक करना उनकी चाइस है.

हर जगह आरजेआर का प्रचार हो रहा था, लेकिन ये केम्पेन फेल हो गया था, उसके पीछे का कारण ये था कि स्मोकर्स ने खुद ही सिगरेट कम्पनी का विरोध कर दिया था, आरजेआर कम्पनी को पता चल चुका था कि उनका कैम्पेन फेल हो चुका है, लोगों ने इसका विरोध किया, ये फैसला कम्पनी का गलत निकल गया था.

फिर कंपनी ने एक और कैम्पेन डिजाईन किया, इस बार ये थोड़ा छोटा कैम्पेन था, इस कैम्पेन को उन्होंने नाम गेट द गवर्नमेंट ऑफ़ ऑउर बैक्स (Get the Government of our Backs), ये कैम्पेन इसलिए नहीं था कि आप स्मोकिंग करें बल्कि सरकार की नीतियों को लेकर था. उनका कहना था कि सरकार ने आज सिगरेट पर पाबन्दी लगाई है, कल शराब पर लगा देगी, फिर फास्ट फूड पर भी लगा देगी और पता नहीं किन किन चीजों पर पाबन्दी लगा देगी, इंस कैम्पेन के द्वारा इनडायरेक्ट तरीके से कम्पनी लोगों टार्गेट कर रही थी, बात सिंपल सी इतनी है कि लोगों को पता चले या ना चले लेकिन लोग पीआर के चंगुल में हमेश फस ही जाते हैं.

वीडियो प्रोडक्शन आसान होने से झूठ भी आसान हो गया है

पहले के समय की बात करें तो वीडियो प्रोडक्शन का काम काफी ज्यादा महंगा हुआ करता था, सब लोग इस काम को नहीं कर सकते थे, कुछ बड़े चैनल ही बस हुआ करते थे, या फिर ऑडियो की बात करें तो बस कुछ रेडियो चैनल हुआ करते थे

डिजिटल क्रांति का धन्यवाद करना होगा कि आज के समय में एक क्रान्ति सी आ गई है, अब कोई भी वीडियो प्रोडक्शन कर सकता है. कोई भी रेडियो चेनल बना सकता है, सब कुछ आसान हो चुका है, इसलिए न्यूज़ भी कई जगह से जल्दी जल्दी आती हैं.

लेकिन इस डिजिटल चेंज से एक चीज और बड़ी है चो ये कि आप अपनी बिना सर पैर की थ्योरी से भी लोगों को भड़का सकते हैं.

इसके लिए हम साल 2005 का उदाहरण लेते हैं. यूएस के 9/11 हमले पर एक मूवी बनी थी, इस मूवी को डेलान एवरी नाम के निर्देशक ने बनाया था, इसमें उन्होंने उसी विचारधारा को दिखाया था, जिसमे ये कहा गया है कि यूएस की सरकार ने ही हमला करवाया था, उस फिल्म को किसी ने नहीं खरीदा था, किसी सिनेमा घर में नहीं रिलीज हुई थी लेकिन वो मूवी गूगल के वीडियो चार्ट में टॉप पर थी.

मब आप समझ रहे होंगे, डिजिटल क्रान्ति को, एवरी ने उस फिल्म को 2000 डॉलर से भी कम पैसों में बना लिया था, क्योंकि उन्होंने सिर्फ एक लैपटॉप से मूवी का निर्माण किया था अब तो मूवी बनाना और आसान हो चुका है, तो आप अपने मोबाइल से भी मूवी बना सकते हो.

ऐसा नहीं है कि सिर्फ विचारधारा तेजी से फैलती है बल्कि प्रवार भी लोग अपना अब डिजिटल के माध्यम बहुत तेजी से करते हैं.

अब इसमें जो सबसे खतरनाक बात छुपी हुई है, वो ये है कि जब इतने सारे लोग वीडियो बना रहे हैं, तो सही खबर कैसे मिलेगी, आज के दौर की पत्रकारिता इसी हुन्द से जूझ रही है कि सही खबर से पहले फेका न्यूज़ लोगों तक पहुंच जाती है. अब अगर हम न्यूज़ पढ़ते हैं तो ये हमारी जिम्मेदारी है कि हमारा सोर्स ऑफ न्यूज़ सही होना चाहिए, तभी इस डिजिटल क्रांति का सही उपयोग हो पायेगा.

एक चीज सोचिये आप कि आप अपने बच्चे को दिखाने किसी डॉक्टर के पास गये हैं, और बाद में आपको पता चलता है कि वो डॉक्टर फजी था, उसके पास तो डिग्री भी नहीं थी, कैसी हालत होगी आपकी? ऐसा ही कुछ अब हो रहा है न्यूज़ हडस्ट्री में भी, क्योंकि इस ऑनलाइन के जमाने में सभी की आवाज सुताई दे रही है, तो कैसे पहचाने की सही कोन है और गलत कोन है?

2004 का उदाहरण लेते, अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के बाद, एक गणितग्य जिनका नाम कैथी डोप है, उनको राष्ट्रपति चुनाव के रिजल्ट में कुछ गड़बड़ी महसूस हुई तो उन्होंने रिपोर्ट किया.

उन्होंने कम्प्लेन किया कि रिपब्लिकन्स ने हैक कर लिया था चुनाव, और इस बात को उन्होंने ऑनलाइन पोस्ट कर दिया, उनकी कैलकुलेशन सही थी, लेकिन इंटरप्रिटेशन गलत. गलत इसलिए था क्योंकि वो राजनीतिक वैज्ञानिक तो थी नहीं, कई सारे एक्सपर्ट ने उनके व्यूज़ को नकार दिया था, लेकिन उनकी खबर इतनी ज्यादा फ़ेल चुकी थी कि कई लोग भ्रमित भी हो गये थे. मतलब साफ़ है कि आज के डिजिटल समय में गलत चीजें भी वायरल बहुत जल्दी होती हैं,

टेलीविजन एक्टर डॉक्टर फॉक्स कहते हैं कि आप कोई भी चीज जिस लहजे से कह रहे हैं वो हमेशा भापके कंटेंट से भी ज्यादा महत्व रखता है. एक रोडर और एक व्यूमर के तौर पर भापकी भी एक बड़ी जिम्मेदारी बनती है कि आपके पार कोई भी न्यूज़ आये. चाहे आप्ने वह किसी मशहूर न्यूज़ चैनल पर ही क्यों न देखी हो या कोई भी वाट्सएप फॉरवर्ड आये तो आप उसे फॉरवर्ड करने से पहले या उसे सही मानने से पहले उसकी बहुत अच्छी तरह से छान बीन कर जरूर कर लें. गलत जानकारी फैलने से मीडिया के ऊपर हमारा विश्वास भी कम होता जा रहा है

सबसे बड़ा सवाल खड़ा होता है हमारे सामने भी और मीडिया के सामने भी कि इतनी गलत जानकारियों का हमारी रोज की जिन्दगी पर क्या प्रभाव पड़ रहा है? इसका जवाब सिंपल सा ये है कि आम लोगों का भरोसा मीडिया से कम होता जा रहा है. इसका असर समाज के ऊपर भी पड़ सकता है, समाज की सुरक्षा के लिए हमें इस पहलू पर गौर करने की जरूरत है, साल 1954 में रिसर्चर एडवई ने एक अध्ययन किया था.

उन्होंने ये अध्ययन इटली में किया था. इस अध्यन के माध्यम से उन्होंने बताया कि ना सिर्फ इंसान के लिए बल्कि किसी भी समाज के लिए भरोसा एक बहुत ज़रुरी चीज़ होती है, किसी का भी भरोसा पाना इतना आसान काम नहीं होता है, ये एक तपस्या की तरह होता है, जिसे आपको निरंतर करते रहना पड़ता है.

भरोसा किसी भी समाज में इसलिए भी जरूरी है कि अगर ये खत्म हो गया तो जीवन भी खत्म होने लगेगा, किसी को किसी पर विश्वास नही होगा तो सोसाइटी में काम भी नहीं होगा, एक रहवासी होने के नाते हमारी ये नैतिक जिम्मेदारी बन जाती है कि हम समाज से विश्वास को बिलकुल भी कम नहीं होने दें, अब इसके लिए खबरों को केसे चलाना है, इसका फैसला भी मीडिया को लेना ही पड़ेगा.

एक बात गौर करिए, ध्यान से, गलत खबरों के प्रभाव से सोसाइटी में विश्वास कम हो रहा है कि नहीं? इसकी कितनी जिम्मेदारी मीडिया को लेनी चाहिए?

हम एक दराने वाले आकड़े पर नजर डालते है, साल 1960 में 60 प्रतीशत अमेरिकन एक दुसरे पर भरोसा करते थे, साल 1990 में ये आकड़ा 40 प्रतिशत हो गया, वहीं साल 2006 आते आते ये आकड़ा 32 प्रतिशत पर आ गया, एक राजनीतिक वैज्ञानिक के अनुसार अमेरिकन्स 1960 के बाद से लगातार एक दूसरे से बातचीत कम करते जा रहे हैं, इसका मतलब साफ़ है कि उनके बीच का विश्वास भी कम होते जा रहा है.

राजनीतिक वैज्ञानिक ने बताया भी है कि इसके पीछे का कारण और कुछ नहीं भरोसे की कमी ही है, भरोसे की कमो क्यों हो रही है, क्योंकि हम लोगों से डिजिटली ज्यादा कनेक्ट होते हैं. हम डिजिटल न्यूज़ फीड देख रहे हैं, न्यूज़ हमें अपना गुलाम बना रही है. इससे बचने का तरीका भी हमारे पास है कि न्यूज़ सही और सटीक देखिये, मीड़िया समाज को नुकसान तभी पहुंचा सकता है जब वो गलत न्यूज़ दे और हम देखते रहें, हमको आज से बल्कि अभी से फेक न्यूज़ को ना कहना ही होगा एक अच्छे समाज के लिए एक अच्छा भरोसा होना भी जरुरी है, कौनसा चैनल प्रोपगंडा फैला रहा है ये पता करने का एक आसान तरीका अगर कोई चेनल दिन रात बस अपने देश की सरकार की तारीफ ही करता रहता है तो समझ जाइएगा कि वह चैनल किसी प्रोपगडा के तहत चल रहा है.

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