यह किताब किसके लिए है
हर उस व्यक्ति के लिए जो तनावग्रस्त और अधिक प्रमिभूत महसूस करता है।
- हर उस व्यक्ति के लिए जो लिगों के लिए बनाए गाए नियमों के हिसाब से चलने में दबित महसूस करता है।
लेखक के बारे में
वाशिंगटन पोस्ट अखबार के साथ एक पत्रकार की हैसियत से काम करने वाली विगिड व्यक्तिगत जीवा और पेशेवर जीवन के मुद्दों के साथ ही साथ गरीबी विषय पर भी लिखती है। उन्होंने अमेरिकी जीवन में कार्य और खाली समय के मुटे को अची तरह से जाना समझा है और उसके द्वारा यह ढूंढने का प्रयास किया है कि कैसे हम “एक अचछी जिंदगी जी सकते हैं। वे स्टाइल और आउटलुक’ जैसी पत्रिकाओं के लिए भी लिस्प चुकी हैं।
यह किताब आपको क्यों पढ़नी चाहिए
काम और घर-परिवार के बारे में अपने पुराने खयालातों को छोड़ दीजिए और अपना तनाव कम कीजिए
हम प्रबुद्ध समय में जी रहे हैं, है ना? खेर हाँ या नहीं। हालांकि लिंग, जाति और कामुकता के प्रति हमारा दृष्टिकोण पिछले कुछ सालों में काफी विकसित हो चुका है, मगर अभी भी कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिनपर लोग जानबूझकर अज्ञानी बने बैठे हैं।
ऐसा ही एक क्षेत्र है- समाज का लिंग के प्रति दृष्टिकोण। हैरानी की बात तो यह है कि अभी भी बहुत सारे पश्चिमी समाज महिलाओं को घर व बच्चे संभालने चाहिए और मर्द
को काम वाले पुराने विचार से चिपके हुए हैं।
यह पुराना, पिछड़ा दृष्टिकोण हम सबकी जिंदगियों को असन्तुष्ट और तनावग्रस्त बना रहा है। इस किताबों के पाठों में आप विस्तार से आप विस्तार से जानेंगे कैसे और क्यों आप इतने तनावग्रस्त हैं। सबसे जरूरी बात हम जानेंगे कि हम अपना तनाव दूर करने के लिए आज और भविष्य में क्या कर सकते हैं।
इसके अलावा आप सीखेंगे कि
क्यों ज्यादातर कंपनियों के बड़े अधिकारी सोचते हैं कि जो आदमी अपने बच्चों की फिक्र करता है वह एक अच्छा पेशेवर नहीं हो सकता है।
- कैसे ज्यादा तनावग्रस्त रहना दिमाग के हिस्सों है।
क्यों अफ्रीकी जनजाति के लोगों को अपने बच्चों की पर्याप्त फिक्र करने में दिक्कत नहीं होती।
अभिभावक परेशान हैं क्योंकि उनके पास बहुत सारा काम करने को है और बिल्कुल भी समय नहीं है । माताऐं इस बात से अधिक परेशान हैं।
हम सब जानते हैं कि परेशानियों से घिरे होने पर कैसा महसूस होता है। बिना किसी निर्भरता के भी अपने पेशेवर जीवन और व्यक्तिगत जीवन में सतुलन बना पाना आसान नही होता और तब तो यह असंभव ही हो जाता है जब आप एक दुधमुहें बच्चे के अभिभावक हों और आपको उसकी लगातार देखभाल करनी हो।
इस बात पर कोई संदेह नहीं है कि आजकल के अभिभावक दफ्तरों की व्यस्त दिनचर्या के साथ-ही-साथ बच्चों को संभालने के कारण तनाबग्रस्त हैं। घर और दफ्तर दोनों को संतुलित करने में एक व्यक्ती का रोज का काफी समय खत्म हो जाता है।
2008 में किये गए एक अध्ययन में, अमरीकी परिवार और कार्य संस्थान ने अमरीकी कामकाजियों से उनकी देनिक जिंदगी से संबंधित सवाल किया इस अध्ययन में पाया गया कि ज्यादातर लोगों को लगता है कि किसी आम दिन में उनके पास करने को बहुत अधिक काम होते हैं। दो तिहाई लोगों ने कहा कि उन्हें लगता है कि उनके पास स्वयं या अपने साथी के लिए पर्याप्त समय नहीं है। जबकि तीन-चौथाई लोगों ने बताया कि वे अपने बच्चों के लिए पर्याप्त समय नहीं निकाल पाते हैं।
काम के बोझ तले दबे होने का यह भाव महिलाओं में ज्यादा पाया जाता है। चूंकि 1970 के दशक के बाद से कामकाजी महिलाओं की संख्या में नाटकीय रूप से इजाफा हुआ है, जिसके कारण एक अच्छे वेतन वाली नौकरी ढूंढने और उसे बनाए रखने की प्रवत्ति बढ़ी है। इस कारण कामकाजी माओं को लंबे समय तक काम करना पड़ता है।
वर्ष 2004 में किये गए एक अन्य अध्ययन में 6 बच्चों से कम बच्चों वाली माओ से पूछा गया कि क्या उसके पास कभी फुरसत का समय होता है। तो इस सवाल के प्रति
किसी भी महिला का जवाब “हाँ’ में नहीं था। खाली वक्त ना होने की यह समस्या सिर्फ महिलाओ के ही साथ नहीं है बल्कि 95% पिताओं ने भी स्वीकारा है कि एक आम दिन में उनके पास शायद ही कोई खाली वक्त बचता है।
इसमे कोई हैरानी के बात नहीं है कि इसी फुरसत के वक्त की कमी की वजह से अमेरिका में तनाव और चिंता से पीड़ित लोगों की संख्या बड़ी है।
अमेरिकी मनोचिकित्सीय संघ ने 201 में खुलासा किया कि अमेरिकी इतिहास में पहली बार लोग इतने ज्यादा तनावग्रस्त है। इससे पहले साल 2007 में विश् स्वास्थ्य सगठन ने एक अध्ययन में पाया था कि अमेरिकी लोग, दुनिया के सबसे अमीर देशों में से शुमार देश में रहने के बावजूद भी औसतन दुनिया के लोगों में सबसे ज्यादा तनावग्रस्त हैं।
जिंदगी है तो तनाव तो होगा ही- पर क्या तनाव कोई बड़ी चीज है? जी हाँ, यह है। मगर केसे, जानते हैं आले सबक में।
बहुत ज्यादा तनाव लेना आपके मस्तिष्क को क्षतिग्रस्त कर सकता है और आपकी भावनाओं पर आपके नियंत्रण को कम कर सकता है
क्या तनाव हमेशा बुरा होता है? संक्षिप्त जवाब है “नहीं ! वास्तव में धोडे समय के लिए तनावग्रस्त रहने के कारण ही वर्षों से मानव जाति का विकास हुआ है और तनाव ही वह चीज है जो संकट की घड़ी में हमारी इंद्रियों को तेज-तर्रार बनाती है।
हालांकि रोज-रोज का स्थायी तनाव जो भावनाओं में असंतुलन से उत्पन्न होता है, फायदेमंद नहीं होता। बल्कि स्थायी तनाव हमारे मस्तिष्क को आघात पहुंचाता है।
“येल स्ट्रेस सेंटर में मनोचिकित्सा की सह-प्रोफेसर एमिली एनसेल ने अपने प्रसिद्ध शोध में इस बात का प्रमाण भी ढूंढ निकाला है। उसने अपने शोध में पाया कि जो लोग ज्यादा तनावग्रस्त रहते हैं, उनका प्री फ्रन्टल कॉर्टेक्स (दिमाग की समझ़दारी का भाग जो हमें योजना बनाने की क्षमता, स्व-नियंत्रण और तार्किक क्षमता देता है ) उन लोगों की तुलना की तुलना में सिकुड़ जाता है जो लोग कम तनावग्रस्त होते हैं।
इसके अलावा उन लोगों में दिमाग के एगीड़ाला हिस्से (दिमाग का सबसे पुराना हिस्सा जो हमारी भावनाओं, डर, आक्रामकता और चिंता के लिए जिम्मेदार होता है) का आकार बढ़ जाता है, जो अधिक तनावग्रस्त रहते हैं।
ऐसेल के अनुसार, ये बदलाव व्यक्ती के खुद की भावनाओं पर नियंत्रण की कमी के साथ ही साथ बुरी और खुद को नुकसान पहुंचाने वाली आदतों में इजाफे की भोर संकेत करते हैं।
तनावग्रस्त होने का बुरा प्रभाव सिर्फ किसी व्यक्ति-विशेष तक ही सीमित नहीं रहता है बल्कि अगर किसी समाज में बड़ी संख्या में लोग उच्च रुप से तनावग्नस्त रहते हैं तो यह तनाव पूरे समाज पर भी बुरा असर डालता है।
उदाहरण के लिए, एक तनावग्रस्त दिनचर्या लोगों की उत्पादकता कम कर देती है, जिससे समाज पर अप्रत्यक्ष रूप से दुष्प्रभाव पड़ता है।
न्यूयॉर्क के रोकफेलर विश्वविद्यालय में तत्रिकाओअत्रस्तरावी विज्ञान (न्यूरोएन्डोकराइनोलोगी) के विभागाध्यक्ष ब्रूस मैकईवन ने अपने अध्ययन में पाया है कि अधिक तनावग्रस्त छात्र प्रभावशाली और जटिल निर्णय लेने में कमजोर होते हैं और वे बेहुदा गलतियाँ करने में भी अन्य छात्रों से आगे होते हैं।
जाने-माने मनोवैज्ञानिक मिहालय सिकजेनटीमिहाले मानते हैं कि लगातार तनाव की उस अवस्था में, जिसमें इसान साफ-साफ नहीं सोच पाता है, रहने से इंसान की “फ़लो थिंकिंग वाली उस अवस्था में पहुँचने की संभावना कम हो जाती है, जहां इंसान किसी काम पर गहराई से ध्यान लगा सकता है और जटिल समस्याओं के हल ढूंड सकता है।
औद्योगिक जमाने ने उत्पादकता में वृद्धि को प्रेरित किया है और तब से कामकाजी लोग कभी धीमे नहीं पड़े
हम सब जानते हैं कि तनाव हानिकारक है और चिंता हमें शारीरिक और मानसिक दोनों तरीकों से नुकसान पहुंचा सकती है। मगर कैसे हम एक समाज के रूप में एकजुट होकर तनाव नाम की इस समस्या से निपटने का प्रयास कर सकते हैं। औद्योगिक क्रांति का पूरी दुनिया को तनावपूर्ण बनाने में बहुत ही गहत्वपूर्ण योगदान रहा है। सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में औद्योगिक उत्पादन के आविष्कार ही, उत्पादकता यानि ज्यादा काम कम समय में निपटाना उद्योगों का मुख्य उद्देश्य बन गया। साथ इसका मतलब था कि श्रमिकों को बढ़े हुए समय में जल्दी-जल्दी काम निपटाना होता था। तब से ही इस तरह के काम के नियम उद्योगों में कम या ज्यादा पर बने रहें, कम से कम अमेरिका में तो ऐसा रहा।
साल 2001 में अर्थशास्त्र सहयोग और विकास संघ (OECD) ने अपनी “बैटर लाइफ हंडेक्स” अध्ययन में पाया कि अमेरिकी लोग पूरे औद्योगिक विश्व में सबसे ज्यादा घंटों तक काम करते हैं और ये घंटे 1990 के बाद और भी ज्यादा बड़े हैं।
काम के लंबे घंटों के भलावा अमरीकी दफ्तरों के नियम ज्यादातर बाकी विकसित देशों के दपत्तरों के मुकाबले ज्यादा सख्त हैं जिससे दफ्तर और घर की जिंदगी में संतुलन बना पाना अमरीकियों के लिए आऊर भी ज्यादा कठिन काम हो जाता है।
उदाहरण के लिए, आमतौर पर एक अमरीकी पेशेवर दफ्तर में काम के घटों में छूट या फिर आशिक काम की अपील नहीं कर सकता है। इसके साथ ही आशिक रूप से (पार्ट टाइम)काम करने वाले कामगारों को बीगा और अन्य फ़ायदों से वंचित रखा जाता है, जो कि ज्यादातर यूरोपियन देशों के बिल्कुल उलट है। सूचना क्राति के युग के बाद से अमरीकी दफ्तरों में काम का बोझ भी काफी बढ़ गया है।
सोप में कहें तो हम अभी आधुनिक युग में रोजाना आने वाली सूचनाओं को ग्रहण करने के अभी अनुकूल नहीं हुए हैं। यहाँ तक कि सोधकर्ता जोनाथन सपिरा के द्वारा किये गए एक अध्ययन में पाया गया है कि एक आम अमेरिकी कामगार दफ्तर में अपने दिन का आधा से ज्यादा वक्त केवल ईमेल को ही हैडल करने में खर्च कर देता है।
“किस बात के बारे में सोच’ यह सोचना ही तनावग्रस्त और अनुत्पादक रहने का सबसे प्रमुख कारण है।
समय प्रबंधन गुरु डेविड एलेन कहते हैं कि दफ्तर किस काम पर ध्यान लगाऊँ, सोचने से निर्णय थकान होती है जो कि एक तरह से चिंता के समान होती है।
यह लगातार होने वाला तनाव एक व्यक्ति की इकछाशक्ति को तोड़ देता है और हम काम के बीच में होने वाली बाधाओं को सहन नहीं कर पाते। और अंत में इन बाधाओं में लगने वाला समय हमारी उत्पादकता को कम कर देता है।
पिता कमाता है और माँ बच्चे संभालती है- यह पुरानी धारणा अब भी हमारे समाज में मौजूद है
यद्यपि हम सोचते हैं कि हम एक आधुनिक दुनिया में जी रहे हैं, फिर भी हममें से कई लोग, जाने अनजाने में अपने बाप दादाओं के जमाने की धारणाओं से बुरी तरह प्रभावित हैं।
इसी तरह की एक रूढ़िवादी धारणा है कि एक आदर्श पुरुष को जवानी से लेकर सेवानिवृत्त होने तक पूरी तरह से अपने करियर पर ध्यान देना चाहिए और एक आदर्श महिला को अकेले ही सारा घर और बच्चे संभालने चाहिए।
चाहे हम इस बात को स्वीकार करें या ना करें, मगर वे लोग जो इन रूढ़िवादी धारणाओं हटकर चलते हैं, दुनियाँ उन्हें असामान्य बताती है।
उदाहरण के लिए इब्ल्यूएफडी कसलटीग द्वारा 2012 में कराया कराए गए एक सर्वेक्षण में 2000 से भी ज्यादा सुपाडजरों, मेनेजरों और एक्सेक्यूटिवों से सवाल किये जिसमें प्राथमिकताओं से संबंधित एक भेदभाव सामने आया। सर्वे में शामिल आधे से ज्यादा लोगों का कहना था कि जो आदमी अपनी व्यक्तिगत जिंदगी और परिवार को समय दे पाता है वह अपनी नौकरी के प्रति ज्यादा वफादार नहीं हो सकता।
इस तरह की धारणाओं के कारण महिलामों पर अत्यधिक दवाय आ जाता है और वे दफ्तर और समाज की घर के प्रति उनकी छवि के बीच पीसकर रह जाती हैं। जिसके परिणामस्वरूप उनमें आत्मग्लानि और तनाव की भावना आ जाती है।
उदाहरण के लिए, जर्नल ऑफ अपलाइड साइकोलोगी के द्वारा 2008 में किये गए एक अध्ययन में कामकाजी महिलाओं को स्वार्थी और निर्भागि माने करार दिया गया।
समाज में प्रचलित लिंगों के लिए विशेष मापदंडों को फॉलो ना कर पाने के कारण कई पुरुष तनाव में चले जाते हैं और जब वे सामाजिक मानदंडों पर खरे नहीं उतर पाते हैं तो खुद को दोष देने लग जाते हैं।
उदाहरण के लिए, बहुत सारे पुरुष भी “पलेक्सविलटी स्टिग्मा” का सामना करते हैं जबकि वे अपने परिवार और बच्चों के लिए वक्त निकालने के लिए काम के वक्त को कम करने की माग करते हैं। समाजशास्त्री जॉन विलियम्स ने पाया है कि दफ्तर के साथी और मैनेजर भी किसी व्यक्ति को “आदर्श कामकाजी पुरुष की पुरानी परिभाषा पर ही जाँचते हैं। अगर कोई व्यक्ती इस परिभाषा में फिर नहीं बैठता तो उसे आलसी और अपने काम के प्रति वफादार नहीं समझा जाता है। जिसके परिणामस्वरूप ऐसे व्यक्तियों को प्रमोशन कम ही दिया जाता है।
मगर हम ऐसी पुरानी विचारधाराओं को तोड़ने के लिए कर क्या सकते हैं? जानते हैं इसके बारे में अगले पाठ में।
क्या हम उत्पादक होने के लिए 100 घंटे काम करने की जरुरत है? नहीं। काम करने के फ्लेक्सिबल घंटे भविष्य की जरुरत है
तो कैसे हम दफ्तर के अपने लबे और कम छुट्टी वाले (इफलेक्सिबल) घटों को किसी कम कठिन और कम तनावभरी वीज़ में बदल सकते हैं?
चलिए इस बात को कुछ कंपनियों के उदाहरण लेकर समझते हैं जो इस काग में सफल हो चुकी हैं।
सॉफ्टवेयर बनाने वाली कंपनी मेनलो इनोवेशन रिच सेरीदन द्वारा बनाई गई थी। रिच ने अपनी जिंदगी के कई साल अप्रसन्नता और तनाव के साथ पारंपरिक दपत्तरों में बिताए थे।
अपनी कंपनी के दफ्तरों में ज्यादा उत्पादक और कामकाजियों के लिए ज्यादा अच्छा माहौल बनाने के लिए शेरीदन में काम में लचकता फलेक्सबिलिटी) पर ध्यान दिया। अतार्किक लक्ष्यों को पूरा करने में लगे समय को कम करने के साथ ही साथ ही साथ कंपनी ने वास्तविक लक्ष्य बनाने पर ध्यान दिया और इस बात की पूरी कोशिश की कि ये लक्ष्य पूरे हों। इसके साथ ही साथ अपने दफ्तरों में उन्होंने ऐसा माहौल बनाया जिससे कि सारे एम्प्लोयी एक-दूसरे के साथ रोजाना रचनात्मक फीडबैक साझा करें- लोगों को, जब वे चाहे तब और जैसे वे चाहे वैसे काम करने की इजाजत देना।
आपके हिसाब से इसका नतीजा कैसा रहा होगा? इसके बाद मेनला इनोवेशन के कामकाजियों ने भपने व्यक्तिगत और कामकाजी जीवन में संतुलन आ जाने की बात की और इससे पूरी कंपनी को उसकी मजबूत सोच और रचनात्मकता के लिए प्रशंसा मिली। इसके अलावा मेनलों को अमेरिकी मनोविज्ञान संघ ने अमेरिका के सबसे “स्वस्थ मनोवैज्ञानिक दफ्तरों में से एक करार दिया है।
दूसरा रोचक उदाहरण है- क्लीयरस्पायर, एक ऑनलाइन फर्म । क्लीयरस्पायर एमप्लॉ्डस को घर बैठकर तकनीक के माध्यम से घर बैठे काम करने का देती है।
यह प्रमाणित हो चुका है कि जो अभिभावक घर बैठकर ऑनलाइन ऑफिस के माध्यम से काम करते हैं वे ज्यादा उत्पादक होते हैं। घर से काम करना लोगों को उनकी व्यक्तिगत और पेशेवर जिंदगी में संतुलन बिठाने में मदद करता है।
घर से काम करने वाले अभिभावक बिना किसी झंझट के परिवार के समारोहों का हिस्सा बन सकते हैं और साथ ही साथ फुरसत के पल परिवार के साथ भी विता सकते हैं। और सबसे जरूरी बात, बिना किसी बंधन के उस समय काम कर सकते हैं जब वे सबसे ज्यादा उत्पादक हो यानि जब उनके काम करने का मन हो।
उत्पादकों को काम के घंटों के अनुसार मानने का विचार धीरे-धीरे एक नए विश्वास के काबिल कामकाजी दिनचर्या में बदलता जा रहा है, जहां एम्प्लॉईस, जैसे कि मेनों में थे, को स्पष्ट और बने बनार परफॉरमेंस लक्ष्य दिए जाते हैं और उन लक्ष्यों को जिस तरह से वे चाहे उस तरह से पूरा करने की आजञादी।
और सबसे महत्वपूर्ण बात, मेनलों कंपनी ने इस तरीके को अपनाकर वितीय और सम्माननीय दोनों तरह की सफलताएं पाई हैं।
लिंगो से संबंधित पुरानी धारणाएं innate नहीं हैं। अच्छे सामाजिक नीति के द्वारा उन्हें खत्म किया जा सकता है
शायद आप सोच सकते हैं कि अगर लिंगों से संबंधित पुरानी धारणाओं को अभी भी समाज ने पकड़ रखा है, इसका मतलब साथ मिलकर आगे नहीं बढ़ सकते?
नहीं सच यह है कि लिंगों के बारे में पुरानी धारणाएं समाज ने बनाई हैं, ना कि उनका निर्माण शरीर विज्ञान के हिसाब से हुआ है।
अमेरिकी शरीरविज्ञानी सराह हरदी द्वारा अफ्रीका के कालाहारी रेगिस्तान की कुंग जनजाति पर किया गया शोध भी अकेली माँ के द्वारा बच्चे के पालन-पोषण को नकारता है। शोध में पता चला कि इस जनजाति में बच्चों का लालन-पालन “टलो पेरेंटिंग” नाम की एक प्रथा से होता है जिसमें बच्चा पूरे समाज के द्वारा मिलकर पाला जाता है।
जैसे दादी माँ की परिकल्पना या वे लोग जो पलने-बढ़ने में ज्यादा वक्त लेते हैं, एकल परिवार और माँ के द्वारा बच्चों के अकेले पालन-पोषण का मजबूती से विरोध करती है।
संयुक्त राज्य अमेरिका से बाहर के देशों को देखने पर हम यह आसानी से जान सकते हैं कि नकारात्मक लिंग धारणाओं को कैसे रोकना है। डेनमार्क एक अच्छा उदाहरण है जिसने लिंगभेद के संबंध में अपनी सक्रीय और इंटरवेनशनलिस्ट पॉलिसी बनाई है। डेनमार्क की प्रगतिशील राजकीय पॉलिसी में बच्चे के जन्म से 1 साल तक का मात्रत्व और पित्रत्व अवकाश, काम के अधिकतम घंटे और बच्चे की उच्च गुणवत्तापूर्ण परवरिश शामिल है।
परिणामस्वरूप ऐसी पॉलिसियों ने डेनमार्क में बहुत सारे सामाजिक बदलावों को प्रेरित किया है। उदाहरण के लिए, वहाँ घर के काम में पुरुषों और महिलाओं के समय का योगदान लगभग बराबर होता है, जो कि दुनिया के ज्यादातर देशों के हिसाब से काफी अलग है। डेनमार्क की महिलाओं के पास दुनिया के किसी भी अन्य देश की महिलाओं तुलना में ज्यादा फुरसत का समय मौजूद होता है।
इसके अलावा, 60 प्रतिशत से भी ज्यादा देनिश पुरुषों ने अपने रिश्ते को खुशनुमा बताया है जहां दोनों लिंगों में घर और बच्चे की जिम्मेदारियां बराबर बांटी गई हैं। रिश्ते में खुशनुमा पुरुषों का यह प्रतिशत संयुक्त प्रात अमेरिका की तुलना में काफी ज्यादा है।
पिछले कई वर्षों से यूनाइटेड नेशंस वर्ल्ड हेपीनेस रिपोर्ट के अनुसार डेनमार्क के लोग दुनिया के सबसे खुशनुमा लोग हैं: अमेरिका से ज्यादा प्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्था और डेनमार्क की 80% महिलाओं को रोजगार मिलता है। इस तरह डेनमार्क पूरी दुनिया के लिए एक मिसाल कायम कर रहा है।
इसलिए अच्छे सामाजिक नियमों और समर्थित दपत्तरों के साथ हम पुराने जमाने की बनाई हुई इन लैंगिक धारणाओं को तोड़ सकते हैं जिससे कि पुरुष और महिला दोनों के लिए तनाव के मौके कम होंगे।
स्वीकार कीजिए कि आप सबकुछ आज ही नहीं कर सकते; ध्यान और सजगता का अभ्यास कीजिए
भब तक हम यह जान चुके हैं कि हम सामाजिक तनाव के तत्वों को किस तरह से कम कर सकते हैं।
तो चलिए अब जानते हैं कि हम अपनी व्यक्तिगत परेशानियों को खुद कैसे सुलझा सकते हैं।
सबसे पहले तो हमें यह समझना होगा कि हम सारी चीजें अपने आप नहीं कर सकते हैं। साथ ही साथ हमें सिर्फ वहीं चीजें हाथ में लेनी चाहिए जिन्हे करने में हम सक्षम हैं।
बहुत ज्यादा कामों से घिरे रहने की दशा में अवसर हम यह निर्णय नहीं ले पाते कि कौन-सा काम हमें अभी करना चाहिए। इससे तनाव पैदा होता है और हमारी उत्पादकता में भारी कमी आती है। इस दुर्दशा से बचने के लिए हमें इस बात को मानना होगा कि हम सारे काम खुद नहीं कर सकते हैं।
मनोचिकित्सक डेविड हार्टमन और डाएन जीमबरऑफ सलाह देते हैं कि लोगों को अपनी रोजाना की उमीदों को वास्तविक रखना चाहिए कि वे किसी स्वास दिन (जैसे-आज) में कौन-सा लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं। काम के मामले में हमेशा अपने कामों को प्राथमिकता के हिसाब से बांटना चाहिए क्योंकि इस तरह कामों का बंटवारा करने से इंसान को उन्हें पाने पर संतुष्टि महसूस होती है और वे ज्यादा उत्पादक बनते हैं।
ध्यान लगाना और चेतना (या सजगता) का अभ्यास करने से भी तनाव को कम करने में मदद मिल सकती है। सजगता को अच्छे से जाने-समझने के लिए आप “पावर ऑफ नाऊ” और द मिरेकल ऑफ माइंडफुलनेस” जैसी किताबें पढ़ सकते हैं।
प्रोफेसर मिहाले चिकजेंटन्टमिहाली ने अपने निरीक्षण में पाया है कि दिमाग की प्रकृति ही नकारात्मक है- जब इसे ऐसे ही छोड़ दिया जाता है तो यह बुरे विचारों, छोटे-छोटे डरों, बुरी यादों और भविष्य की चिंता से अपने आप ही घिर जाता है। वे बताते हैं कि अनिश्चितता, भटकाव, क्षरण, शक और घबराहट मस्तिष्क की चेतना की स्वाभाविक अवस्था है।
मस्तिष्क के इस टकराव को कम करने की एक तरीका सजगता और ध्यान में डूबना भी है, जिसमे शरीर के क्रियाकलापों को अनुभव करना, वर्तमान पल मैं मन को अनुभव करना और केवल अपने विचारों का निरीक्षण करना भी शामिल है।
यहाँ तक कि केवल कुछ मिनटों की सजगता का अभ्यास करना भी आपको फालतू के तनाव से बचा सकता है।
हार्वर्ड के तंत्रिकावै्ञानिकों ने एक अध्ययन में पाया है कि सजगता और ध्यान का केवल 8 हपत्तों तक अभ्यास करने से दिमाग के प्रीफ़रन्टल कॉर्टेवस (मस्तिष्क का वह भाग जो स्व-नियंत्रण एवं योजना के लिए जिम्मेदार होता है) का आकार बढ़ जाता है। और मस्तिष्क में भय के बिन्दु का माकार घट जाता है।