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पंडित अयोध्यानाथ की मौत हुई तो सबने कहा, “भगवान आदमी को ऐसी ही मौत दे”। अयोध्यानाथ के चार जवान बेटे थे, एक लड़की। चारों लड़कों की शादी हो गयी थी, सिर्फ एक लड़की बची थी जिसकी शादी नहीं हुई थी| मरने से पहले अयोध्यानाथ काफी पैसे-रूपए भी जोड़ चुके थे| एक पक्का मकान, दो बगीचे, कई हजार के गहने और बीस हजार नकद। विधवा फूलमती को दुःख तो हुआ और कई दिन तक बेहाल पड़ी रही, लेकिन जवान बेटों को सामने देखकर उसमें हिम्मत आई | उसके चारों लड़के एक से बढ़कर एक अच्छे थे| चारों बहुएँ बात मानने वाली थीं। जब वह रात को सोने के लिए लेटती, तो चारों बारी-बारी से उसके पाँव दबातीं, जैसे ही वह नहा कर आती, बहु साड़ी पकड़ाती। सारा घर उसके इशारे पर चलता था। बड़ा लड़का कमाँ था| एक दफ्तर में 50 रू. पर नौकरी करता था, छोटा उमानाथ डाक्टरी की पढाई पास कर चुका था और कहीं दवाई स्टोर खोलने की सोच रहा था, तीसरा दयानाथ बी. ए. में फेल हो गया था और अख़बार- मैगजीन में लेख लिखकर कुछ-न-कुछ कमा लेता था,चौथा सीतानाथ चारों में सबसे तेज दिमाग का और होनहार था और अबकी साल बी. ए. पहले स्थान से पास करके एम. ए. की तैयारी में लगा हुआ था।
किसी लड़के में नशा करने की आदत, आवारागर्दी, या फालतू खर्चे वाली आदत नहीं थी, जिसके कारण माता-पिता की समाज में इज़्ज़त डूबती है। फूलमती घर की मालकिन थी। जबकि चाबियाँ बड़ी बहू के पास रहती थीं| बुढ़िया में यह भावना नहीं थी कि “मैं घर की मालकिन हूँ और सारा घर मेरे ही इशारों पे चलता है”, जो अक्सर बूढ़े लोगों को बुरा बोलने वाला और झगड़ालू बना देता है, लेकिन उसकी इच्छा के बिना कोई बच्चा मिठाई तक नहीं मँगा सकता था। शाम हो गयी थी। पंडित को मरे आज बारहवाँ दिन था। कल तेरवीह थी । ब्राह्मणों का खाना होगा। रिश्तेदारी के लोग बुलाने होंगे। उसी की तैयारियाँ हो रही थीं। फूलमती अपने कमरे में बैठी देख रही थी, मजदूर बोरे में आटा लाकर रख रहे हैं। घी के टीन आ रहे हैं। सब्जी के टोकरे, चीनी की बोरियाँ, दही के मटके चले आ रहे हैं। महापात्र ( ब्राह्मण की एक जाति) के लिए दान की चीजें लायी गयीं- बर्तन, कपड़े,पलंग,बिछाने का सामान, छाते,जूते, छड़ियाँ, लालटेन वगैरह | लेकिन यह क्या फूलमती को कोई चीज नहीं दिखायी गयी।
नियम के हिसाब से ये सब सामान उसके पास आने चाहिए थे। वह हर सामान को देखती उसे पसंद करती,उसकी मात्रा में काम- ज्यादा का फैसला करती, तब इन चीजों को भंडारे में रखा जाता। क्यों उसे दिखाने और उसकी राय लेने की जरूरत नहीं समझी गयी?, अच्छा वह आटा तीन ही बोरा क्यों आया?, उसने तो पाँच बोरों के लिए कहा था। घी भी
पाँच ही टीन है। उसने तो दस टीन मँगवाए थे। इसी तरह सब्जी, चीनी, दही आदि में भी कमी की गयी होगी। किसने उसके कहने में दखल किया?, जब उसने एक बात तय कर दी, तब किसे उसको घटाने-बढ़ाने का अधिकार है?
आज चालीस सालों से घर के हर मामले में फूलमती की बात सब मानते थे| उसने सौ कहा तो सौ खर्च किये गये, एक कहा तो एक। किसी ने छोटी बातों की शिकायत नहीं की। यहाँ तक कि पं. अयोध्यानाथ भी उसकी इच्छा के खिलाफ कुछ नहीं करते थे| पर आज उसकी आँखों के सामने साफ़-साफ़ रूप से उसके कहने को नहीं माना जा रहा है| इसे वह कैसे मान सकती थी ?
कुछ देर तक तो वह चुप-चाप बैठी रही, पर अंत में नहीं रहा गया। आजाद शासन उसका स्वभाव हो गया था। वह गुस्से में भरी हुई आयी और कामतानाथ से बोली- “क्या आटा तीन ही बोरे लाये? मैंने तो पाँच बोरों के लिए कहा था। और घी भी पाँच ही टीन मँगवाया, तुम्हें याद है, मैंने दस टीन कहा था? बचत को मैं बुरा नहीं समझती, लेकिन जिसने यह कुआँ खोदा, वही पानी को तरसे, यह कितनी शर्म की बात है!” (फूलमती ने बोला)
कामतानाथ ने माफ़ी नहीं मांगी, अपनी गलती भी नहीं मानी, शर्म भी नहीं आयी। एक मिनट तो विरोधी सा बन कर रहा, फिर बोला- “हम लोगों की सलाह तीन ही बोरों की हुई और तीन बोरे के लिए पाँच टीन घी काफी था । इसी हिसाब से
और चीजें भी कम कर दी गयी हैं।”
फूलमती और ज्यादा गुस्से में बोली- “किसकी राय से आटा कम किया गया?”
“हम लोगों की राय से।” (कामतानाथ ने कहा) “तो मेरी राय कोई चीज नहीं है?” (फूलमती ने कहा) “है क्यों नहीं, लेकिन अपना फायदा-नुकसान तो हम समझते हैं?” (कामतानाथ ने कहा)
फूलमती चौंक कर उसका मुँह देखने लगी। इस बात का मतलब उसकी समझ में नहीं आया। अपना नुकसान -फायदा! अपने घर में नुकसान -फायदे की जिम्मेदार वह खुद है। दूसरों को, चाहे वे उसके खुद के बेटे ही क्यों न हों, उसके काम में दखल करने का क्या अधिकार? यह लड़का तो इस अकड़ से जवाब दे रहा है, जैसे घर उसी का है, उसी ने मर-मरकर गृहस्थी जोड़ी है, मैं तो पराई हूँ! जरा इसकी अकड़ तो देखो।
उसने गुस्से से कहा- “मेरे नुकसान-फायदे के जिम्मेदार तुम नहीं हो। मुझे अधिकार है, जो ठीक समझू, वह करूं। अभी जाकर दो बोरे आटा और पाँच टीन घी और लाओ और आगे के लिए खबरदार, जो किसी ने मेरी बात काटी।” (फूलमती ने कहा)
अपने हिसाब से उसने काफी चेतावनी दे दी थी। शायद इतनी कठोरता जरुरी नहीं थी। उसे अपने गुस्से पर दुःख हुआ। लड़के ही तो हैं, समझे होंगे कुछ कम खर्च करना चाहिए ।
मुझसे इसलिए नहीं पूछा होगा कि अम्माँ तो खुद हर एक काम में कम खर्च करती हैं। अगर इन्हें पता होता कि इस काम में मैं कम खर्च पसंद नहीं करूँगी, तो ये मेरी बात जरूर मानता। हालाँकि कामतानाथ अब भी उसी जगह खड़ा था और चेहरे से ऐसा साफ़ पता लग रहा था कि इस बात को मानने के लिए वह तैयार नहीं है, पर फूलमती निश्चिंत होकर अपने कमरे में चली गयी। इतनी चेतावनी पर भी किसी को उसकी बात ना मानी जाए, ये उसने सोचा भी नहीं था । पर जैसे-जैसे समय बीतने लगा, उस पर यह सच सामने आने लगा कि इस घर में अब उसकी वह हैसियत नहीं रही, जो दस-बारह दिन पहले थी। रिश्तेदारों के बुलावे में चीनी, मिठाई, दही, अचार आदि आ रहे थे। बड़ी बहू इन चीज़ो को घर की मुखिया की तरह सँभालकर रख रही थी । कोई भी उससे पूछने नहीं आता। बिरादरी के लोग जो कुछ पूछते हैं, कामतानाथ से या बड़ी बहू से। कामतानाथ कहाँ का बड़ा इंतजाम करने वाला है,रात-दिन भांग पिये पड़ा रहता हैं, किसी तरह रो-धोकर दफ्तर चला जाता है। उसमें भी महीने में पंद्रह छुट्टी से कम नहीं होते। वह तो कहो, साहब पंडितजी की शर्म करता है, नहीं तो अब तक कब का निकाल देता। और बड़ी बहू जैसी फूहड़ औरत भला इन सब बातों को क्या समझेगी! अपने कपड़े तक तो ठीक से रख नहीं सकती, चली है गृहस्थी चलाने
सब जगह बुराई होगी और क्या। सब मिलकर खान-दान की इज्जत गवांयेंगे। वक्त पर कोई-न-कोई चीज कम हो जायेगी। इन कामों के लिए बड़ा अनुभव चाहिए। कोई चीज तो इतनी बन जायेगी कि इधर-उधर पड़ी रहेगी। कोई चीज इतनी कम बनेगी कि किसी की थाली में पहुँचेगी, किसी पर नहीं । पर इन सब को हो क्या गया है? अच्छा, बहू पैसों वाली अलमारी क्यों खोल रही है? वह मुझसे पूछे बिना पैसों वाली अलमारी खोलने वाली कौन होती है? चाभी उसके पास है जरूर, लेकिन जब तक मैं रूपये न निकलवाऊँ, पैसे वाली अलमारी नहीं खुलती। आज तो इस तरह खोल रही है, जैसे कुछ हूँ ही नहीं। यह मुझसे बर्दाश्त नहीं होगा! वह गुस्से में उठी और बहू के पास जाकर कठोर आवाज में बोली- “पैसे वाली अलमारी क्यों खोलती हो बहू, मैंने तो खोलने को नहीं कहा?” (फूलमती ने कहा) बड़ी बहू ने बिना हिचक से जवाब दिया- “बाजार से सामान आया है, तो पैसे देने है।” “कौन चीज किस भाव में आयी है और कितनी आयी है, मुझे कुछ नहीं पता ! जब तक हिसाब-किताब न हो जाये,
रूपये कैसे दिये जायँ?” (फूलमती सोचने लगी) बड़ी बहू- “हिसाब-किताब सब हो गया है।” “किसने किया?” (फूलमती ने पूछा) “अब मैं क्या जानूँ किसने किया? जाकर मरदों से पूछो! मुझे तो कहा, रूपये लाकर दे दो, लेकर जा रही हूँ !” (बड़ी बहु ने कहा)फूलमती ने गुस्से को दबाया। यह गुस्सा दिखने का समय नहीं था। घर में मेहमान भरे हुए थे। अगर इस वक्त उसने लड़कों को डाँटा, तो लोग यही कहेंगे कि इनके घर में पंडितजी के मरते ही फूट पड़ गयी। दिल को समझा कर फिर अपने कमरे में चली गयी। जब मेहमान चले जायेंगे, तब वह एक-एक से बात करेगी| तब देखेगी, कौन उसके सामने आता है और क्या कहता है। इन चारों को बताएगी।
पंडित अयोध्यानाथ की मौत हुई तो सबने कहा, “भगवान आदमी को ऐसी ही मौत दे’। अयोध्यानाथ के चार जवान बेटे थे, एक लड़की। चारों लड़कों की शादी हो गयी थी, सिर्फ एक लड़की बची थी जिसकी शादी नहीं हुई थी| मरने से पहले अयोधयानाथ काफी पैसे रूपए भी जोड़ चुके थे। एक पक्का मकान, दो बगीचे, कई हजार के गहने और बीस हजार नकदा विधवा फूलमती को दुःख तो हुआ और कई दिन तक बेहाल पड़ी रही, लेकिन जवान बेटों को सामने देखकर उसमें हिम्मत आई उसके चारों लड़के एक से बढ़कर एक अच्छे थे। चारों बहुएँ बात मानने वाली थीं। पकड़ाती। सारा घर उसके इशारे जब वह रात को सोने के लिए लेते, तो चारों बारी-बारी से उसके पाँव दबातीं, जैसे ही वह नहा कर आती, बह साड़ी पक
पर चलता था। बड़ा लड़का किया था| एक दफ्तर में 50 रू. पर नौकरी करता था, छोटा उमानाथ डावटरी की पढाई पास कर चुका था और कहीं दवाई स्टोर खोलने की सोच रहा था, तीसरा दयानाथ बी. ए. में फेल हो गया था और अखबार- मैगजीन में लेख लिखकर कुछ-न-कुछ कमा लेता था,चौथा सीता ने चारों में सबसे तेज दिमाग का और होनहार था और अबकी साल बी. ए. पहले स्थान से पास करके एम. ए. की तैयारी में लगा हुआ था। किसी लड़के में नशा करने की आदत, आवारागर्दी, या फालतू खर्चे वाली आदत नहीं थी, जिसके कारण माता-पिता की समाज में इज़्ज़त डूबती है। फूलमती घर की मालकिन थी। जबकि चाबियाँ बड़ी बहू के पास रहती थीं| बुढ़िया में यह भावना नहीं थी कि “में घर की मालकिन हूँ और सारा घर मेरे ही इशारों पे चलता है”, जो अक्सर बूढ़े लोगों को बुरा बोलने वाला और झगड़ालू बना देता है, लेकिन उसकी इच्छा के बिना कोई बच्चा मिठाई तक नहीं मगा सकती था।
शाम हो गयी थी। पंडित को मरे आज बारहवाँ दिन था। कल तैरवीह थी ब्राह्मणों का खाना होगा। रिश्तेदारी के लोग बुलाने होंगे। उसी की तैयाियाँ हो रही थीं। फूलमती अपने कमरे में बैठी देख रही थी, मजदूर बोरे में आटा लाकर रख रहे हैं। घी के टीन आ रहे हैं। सब्जी के टोकरे, चीनी की बोरियाँ, दही के मटके चले आ रहे हैं। महापात्र (ब्राह्मण की एक जाति के लिए दान की चीजें लायी गयीं- बतन, कपड़े,पलंग,बिछाने का सामान, छाते,जूते, छड़ियाँ, लालटेन वगैरह । लेकिन यह क्या फूलमती को कोई चीज नहीं दिखायी गयी। नियम के हिसाब से ये सब सामान उसके पास आने चाहिए थे। वह हर सामान को देखती उसे पसंद करती,उसकी मात्रा में काम- ज्यादा का फैसला
करती, तब इन चीजों को भंडारे में रखा जाता। क्यों उसे दिखाने और उसकी लेने की जरूरत नहीं समझी गयी?, अच्छा वह आटा तीन ही बोरा क्यों आया?, उसने तो पाँच बोरों के लिए कहा था। घी भी पाँच ही टीन है। उसने तो दस टीन मँगवाए थे। इसी तरह सब्जी, चीनी, दही आदि में भी कमी की गयी होगी। किसने उसके कहने में दखल किया?, जब उसने एक बात तय कर दी, तब किसे उसको घटाने बढ़ाने का अधिकार है? आज चालीस सालों से घर के हर मामले में फूलमती की बात सब मानते थे उसने सौ कहा तो सौ खर्च किये गये, एक कहा तो एक। किसी ने छोटी बातों की शिकायत नहीं की। यहाँ तक अयोध्यानाथ भी उसकी इच्छा के खिलाफ कुछ नहीं करते थे। पर आज उसकी आँखों के सामने साफ़-साफ़ रूप से उसके कहने को नहीं माना है। इसे वह कैसे मान सकती थी।
कुछ तो वह चुप-चाप बैठी रही, पर अंत में नहीं रहा गया। आजाद शासन उसका स्वभाव हो गया था। वह गुस्से में भरी हुई आयी और कामतानाथ से बोली- “क्या आटा तीन ही बोरे लाये? मैंने तो पाँच बोरों के लिए कहा था। और घी भी पाँच ही टीन मैंगवाया, तुम्हें याद है, मैंने दस टीन
कहा था? बचत को मैं बुरा नहीं समझती, लेकिन जिसने यह कुआँ खोदा, वही पानी को तरसे, यह कितनी शर्म की बात है!” (फूलमती ने बोला) कामतानाथ ने माफ़ी नहीं मांगी, अपनी गलती भी नहीं मानी, शर्म भी नहीं आयी। एक मिनट तो विरोधी सा बन कर रहा, फिर बोला- “हम लोगों की सलाह तीन ही बोरों हुई और तीन बोरे के लिए पाँच टीन घी काफी था इसी हिसाब से और चीजें भी कम कर दी गयी हैं।” फूलमती और ज्यादा गुस्से में बोली- “किसकी राय से आटा कम किया गया?”
हम लोगों की राय से। (कामतानाथ ने कहा
“तो मेरी राय कोई चीज नहीं है?” (फूलमती ने कहा) है क्यों नहीं, लेकिन अपना फायदा-नुकसान तो हम समझते हैं?” (कामतानाथ ने कहा)
लगती चौंक कर उसका मुँह देखने इस बात का मतलब उसकी समझ में नहीं आया। अपना नुकसान -फायदा! अपने घर में नुकसान -फायदे की जिम्मेदार वह वह खुद है। दूसरों को, चाहे वे उसके खुद के बेटे ही क्यों न हों, उसके काम में दखल करने का क्या अधिकार? यह लड़का तो इस अकड़
जवाब दे रहा है, जैसे घर
का है, उसी ने मर-मरकर गृहस्थी जोड़ी है, मैं तो पराई हूँ! जरा इसकी अकड़ तो देखो।
उसने गुस्से से कहा- – “मेरे न घी और लाे । टेन और नुकसान-फायदे के जिम्मेदार तुम नहीं हो। मुझे अधिकार है, जो ठीक समझे, वह कर। अभी जाकर दो बोरे आटा और पाँच आगे के लिए खबरदार, जो किसी ने मेरी बात काटी।” (फूलमती ने कहा)
अपने हिसाब से उसने काफी चेतावनी दे दी थी। शायद इतनी कठोरता जरूरी नहीं थी। उसे अपने गुस्से पर दुःख हुआ लड़के ही तो हैं, समझे होंगे कुछ कम खर्च करना चाहिए। मुझसे इसलिए नहीं पूछा होगा कि अम्माँ तो खुद हर एक काम में कम खर्च करती हैं। अगर इन्हें पता होता कि इस काम में में कम खर्च पसंद नहीं करूँगी, तो ये मेरी बात जरूर मानता। हालाँकि कामतानाध अब भी उसी जगह खड़ा था और चेहरे से ऐसा साफ़ पता लग रहा था कि इस बात को मानने के लिए वह तैयार नहीं है, पर फूलमती निश्चिंत होकर अपने कमरे में चली गयी। इतनी चेतावनी पर भी किसी को उसकी बात ना
मानी जाए, ये उसने सोचा भी नहीं था।
पर जैसे-जैसे समय बीतने लगा, उस यह सच सामने आने लगा कि इस घर में अब उसकी वह हैसियत नहीं रही, जो दस-बारह दिन पहले थी। रिश्तेदारों बुलावे में चीनी, मिठाई, दही, अचार आदि आ रहे थे। बड़ी बहू इन चीज़ो को घर की मुखिया की तरह सेँभालकर रख रही थी। कोई भी उससे पूछने नहीं आता। बिरादरी के लोग जो कुछ पूछते हैं, कामतानाथ से या बड़ी बहू से। कामतानाथ कहाँ का बड़ा इंतजाम करने वाला है,रात-दिन भांग पिये पड़ा रहता हैं, किसी तरह रो-धोकर दफ्तर चला जाता उसमें भी महीने में पंद्रह छुट्टी से कम नहीं होते। वह तो कहो, साहब पंडितजी की शर्म करता है, नहीं तो अब तक कब का निकाल देता। और बड़ी बहू जैसी फूहड़ औरत भला इन सब बातों को क्या समझेगी! अपने कपड़े तक तो ठीक है गृहस्थी चलाने
सब जगह बुराई होगी और क्या। सब मिलकर खान-दान की इज्जत गरवांयेंगे। वक्त पर कोई-न-कोई चीज कम हो जायेगी। इन कामों के लिए बड़ा अनुभव चाहिए। कोई चीज तो इतनी बन जायेगी कि इधर-उधर पड़ी रहेगी कोई चीज इतनी कम बनेगी कि किसी की थाली में पहुँचेगी, किसी पर नहीं।पर इन सब को हो क्या गया है? अच्छा, बहू पैसों वाली अलमारी क्यों खोल रही है? वह मुझसे पूछे बिना पैसों वाली अलमारी खोलने वाली कौन होती है? चाभी उसके पास है जरूर, लेकिन जब तक मैं रूपये न निकलवाऊँ, तो पैसे वाली अलमारी खुलती। आज तो इस तरह खोल रही है, जैसे में कुछ हूँ ही नहीं। यह मुझसे बर्दाश्त नहीं होगा!
वह गुस्से में उठी और बहू के पास जाकर कठोर आवाज में बोली- “पैसे वाली अलमारी क्यों खोलती हो बहू, मैंने तो खोलने को नहीं कहा?”(फूलमती ने कहा) बड़ी बहू ने बिना हिचक से जवाब दिया- “बाज़ार से सामान आया है, तो पैसे देने है।’
कौन चीज किस भाव में आयी है और कितनी आयी है, मुझे कुछ नहीं पता सोचने लगी)
बड़ी बहू- ‘हिसाब-किताब सब हो गया है।”
किसने किया?” (फूलमती ने पूछा)
जब तक हिसाब-किताब न हो जाये, रूपये कैसे दिये जायेँ?” (फूलमती
“अब मैं क्या जानूँ किसने किया? जाकर मरदों से पूछो! मुझे तो कहा, रूपये लाकर दे दो, लेकर जा रही हूँ !” (बड़ी बहु ने कहा फूलमती ने गुस्से को दबाया। यह गुस्सा दिखने का समय नहीं था। घर में मेहमान भरे हुए थे। अगर इस वक्त उसने लड़कों को डॉटा, तो लोग यही कहेंगे कि इनके घर में पंडितजी के मरते ही फूट पड़ गयी। दिल को समझा कर फिर अपने कमरे में चली गयी। जब मेहमान चले जायेंगे, तब वह एक-एक से बात करेगी| तब देखेंगी, कौन उसके सामने आता है और क्या कहता है। इन चारों को बताएगी।
कमरे में अकेले में भी चैन नहीं था। सारे हालात को तीखी नजर से देख रही थी, कहाँ सम्मान का कौन-सा नियम टूटता है, कहाँ मर्यादाओं को नहीं माना जाता है। खाना शुरू हो गया। सारी बिरादरी एक साथ लाइन में बैठा दी गयी। ऑगन में मुश्किल से दो सौ आदमी बैठ सकते हैं। ये पाँच सौ आदमी इतनी-सी जगह में कैसे बैठ जायेंगे? क्या आदमी के ऊपर आदमी बिठाए जायेंगे? दो लाइनों में लोग बिठाये जाते तो क्या बुरा हो जाता ? यही तो होता कि बारह बजे की जगह भोज दो बजे खत्म होता, मगर यहाँ तो सबको सोने की जल्दी पड़ी हुई है। किसी तरह यह बला सिर से टले और चैन से सोएं। लोग कितने बैठे हैं। मैदे की पूरियाँ ठंडी क कि किसी को मिलने की भी जगह नहीं। पत्तल एक-पर-एक रखे हुए हैं। परियाँ ठेंडी हो गई। लोग गरम-गरम माँ ग रहे। सीकर होकर चमड़े की तरह हो जाती हैं। इन्हें कौन खायेगा? रसोई में खाना बनाने वाले को कढ़ाई से पता नहीं क्यों उठा दिया गया? यही सब बातें बदनामी की हैं।
तभी अचानक शोर मचा, सब्जियों नमक नहीं। बड़ी बहू जल्दी-जल्दी नमक पीसने लगी। फूलमती गुस्से के मारे होंठ चबा रही थी, पर इस मौके पर कुछ कह नहीं सकती धी। नमक पिसा और पत्तलों पर डाला गया। इतने में फिर शोर मचा- पानी गरम है, ठंडा पानी लाओ, ठंडे पानी का कोई इंतजाम नहीं धा, बर्फ भी नहीं मंगाई गई थी। आदमी बाजार दौड़ाया गया, मगर बाजार में इतनी रात को बर्फ कहाँ? आदमी खाली हाथ लौट आया। मेहमानों कों वही नल का गरम पानी पीना पड़ा। फूलमती का बस चलता, तो लड़कों का मुँह नोंच लेती। ऐसी बेइज्जती उसके घर में पहले कभी नहीं हुई थी। उस पर सब मालिक बनने के लिए मरे जा रहे हैं। बर्फ जैसी जरूरी चीज मँगवाने का भी किसी को ध्यान नहीं था ध्यान कहाँ से रहे- जब किसी को बातें करने से
फुर्सत मिले तब ना। मेहमान अपने दिल में क्या कहेंगे कि चले हैं बिरादरी को भोजन देने और घर में बर्फ तक नहीं है। अच्छा अब, फिर यह हलचल क्यों मच गयी? अरे, लोग लाइन से उठे जा रहे हैं। क्या मामला है?
फूलमती चुध-चाप कमता ने कोई रह सकी। कमरे से निकलकर बरामदे में आई और कामतानाथ से पूछा- क्या बात हो गयी लल्ला? लोग जवाब नहीं दिया। वहाँ
वहा से चली गया। फूलमती झुँझलाकर रह गयी। तभी अचानक कहारिन मिल गयी।
उठे क्यों जा रहे हैं?
फूलमती ने उससे भी यह सवाल किया। मालूम हुआ, किसी के सब्जी के रसे में मरी हुई चुहिया निकल आयी। फूलमती पत्थर की मूर्ती की तरह वहीं
गयी। खड़ी रह । अंदर ऐसा उबाल कि दीवार उठा कि से सिर मार ले। बेवकूफ भंडारे का इंतजाम करने चले थे। इस बेशर्मी की कोई हद है, कितने आदमियों का धर्म खराब हो गया। फिर लाइन क्यों न उठे ? आँखों से देखकर अपना धर्म कौन गवायेंगा? हाय! सारा किया-कराया मिट्टी में मिल गया। सैकड़ों
रूपये पर पानी फिर गया! बदनामी हुई वह अलग।
मेहमान उठ चुके थे। पत्तलों पर खाना ऐसे ही पड़ा था। चारों लड़के आँगन में शर्म से खड़े थे। एक दूसरे को इल्ज़ाम दे रहा था। बड़ी बहू अपनी देवरानियों पर गुस्से में बड़बड़ा रही थी। देवरानियाँ सारा इल्ज़ाम कुमुद के सिर डालती थी। कुमुद खड़ी रो रही थी। उसी वक्त
फूलमती झल्लायी हुई आकर बोली- मुँह काला हुआ कि नहीं या अभी भी कुछ बाकी है? डूब मरो, सब-के-सब जाकर चुल्लू-भर पानी में, शहर में कहीं मुँह दिखाने लायक भी नहीं रहे।
किसी लड़के ने जवाब न दिया।
फूलमती और गुस्से से बोली- तुम लोगों को क्या? किसी को शर्म तो है नहीं। आत्मा तो उनकी रो रही है, जिन्होंने अपनी जिन्दगी घर की इज्जत बनाने
खराब कर दी। उनकी पवित्र आत्मा को तुमने ऐसे दाग लगाया? शहर में थू-थू हो रही है। अब कोई तुम्हे पूछने तो आयेगा नहीं!
कामतानाथ कुछ देर तक तो चुपचाप खड़ा सुनता रहा। आखिर इुँझला कर बोला-“अच्छा, अब चुप रहो अम्मों। गलती हुई, हम सब मानते हैं, बहुत बड़ी गलती
हुई, लेकिन अब क्या उसके लिए घर के लोगों को मार डालोगी?
सभी से गलती होती हैं। आदमी पछताकर रह जाता किसी को जान से तो नहीं मार दिया जाता?” बड़ी बहू ने अपनी सफाई दी- हम क्या जानते थे कि बीबी
उठाकर कढाई में डाल दी। हमारी अरा सक न के बतनान्सी काम भी ने होगा। इन्हें चाहिए
था कि देखकर सब्जी कठाई में डालतीं।
कामतानाथ ने पत्नी को डॉँटा- इसमें ना कुमुद की गलती है, ना तुम्हारी, ना मेरी संयोग की बात है। बदनामी भाग्य में लिखी थी, वह हो गयी। कढ़ाई में नहीं डाली जाती| टोकरे-के-टोकरे दाल दिए जाते हैं। कभी-कभी ऐसा हो जाता है। पर इसमें कैसी
इतने बड़े मुट्ठी
और कैसी बदनामी। तुम बिना मतलब में बात बढ़ा रही हो
फूलमती ने दाँत पीसकर कहा- शर्म तो नहीं, उलटे और बेशर्मी की बातें करते
कामतानाथ ने बिना डरे कहा- ‘शरमाऊँ क्यों, किसी की चोरी की हैं? चीनी में
हो।’
चींटे और आटे में धुन, यह नहीं देखे जाते। पहले हमारी निगाह न पड़ी, बस, यहीं बात बिगड़ गयी। नहीं, चुपके से चुहिया निकालकर फेंक देते। किसी को भी पता नहीं चलता। चाक कर कहा- ‘क्या कहता है, मरी चुहिया खिलाकर सबका धर्म बिगाड़ देता? फूलमती ने कामता हँसकर बोला- ‘क्या पुराने जमाने की बात करती हो अम्मों। इन बातों से धर्म नहीं जाता? यह धर्मात्मा लोग जो पत्तल पर से उठ गये हैं, इनमें से
कौन है, जो भेड़-बकरी का मांस नहीं खाता हो? तालाब के कछुए और घोंचे तक तो किसी से बचते नहीं। जरा-सी चुहिया में क्या रखा था।
है. ।
फूलमती को ऐसा लगा कि अब बर्बादी आने में बहुत देर नहीं है। जब पढ़े-लिखे आदमियों के मन में ऐसे अधार्मिक भाव आने लगे, तो फिर धर्म को भगवान ही बचाये। अपना-सा मुँह लेकर चली गयी।
दो महीने हो गये हैं। रात का समय है। चारों भाई दिन के काम से छुट्टी पाकर कमरे में बैठे गप-शप कर रहे हैं। बड़ी बहू भी बैठी है। कुमुद की शादी का
जिक्र छिड़ा हुआ है। कामतानाथ ने गोल तकिये पर टेक लगाते हुए कहा- दादा की बात दादा के साथ गयी। पंडित विद्वान भी हैं और पूजने लायक भी होंगे। लेकिन जो
आदमी अपनी पढ़ाई व और पूजनीयता को रूपयों पर बेचे, वह नीच हे। ऐसे नीच आदमी के लड़के से हम कुमुद की शादी बिना पैसे में भी नहीं करेंगे, पाँच हजार तो दूर की है। उसे छोड़ो और किसी दूसरे लड़के को ढूंढो। हमारे पास बस बीस हजार ही तो हैं। एक-एक के हिस्से में पाँच-पाँच हजार
आते हैं। पाँच हजार दहेज में दे दें, और पाँच हजार उपहार, बाजे-गाजे में उड़ा दें, तो फिर हमारे पास क्या बचेगा।
उमानाथ बोले- मुझे अपना दवाखाना खोलने के लिए कम-से-कम पाँच हजार की जरूरत है। मैं अपने हिस्से में से एक रुपया भी नहीं दे सकता। फिर खुलते ही आमदनी तो होगी नहीं। कम-से-कम साल-भर घर से खाना पड़ेगा।
दयानंद एक न्यूज़पेपर देख रहे थे। आँखों से चश्मा उतारते हुए बोले- ‘मेरा मन भी एक पत्र निकालने का है। प्रेस और पत्र में कम-से-कम दस हजार का खर्चा चाहिए। पाँच हजार मेरे रहेंगे तो कोई-न-कोई साझेदार भी मिल जायेगा। पत्रों में लेख लिखकर मेरा गुजरा नहीं हो सकता। कामतानाथ ने सिर हिलाते हुए कहा- ‘अजी, राम भजो, बिना पैसे के कोई लेख छापता नहीं, रूपये कौन देता है।
दयानंद ने जवाब दिया- ‘नहीं, यह बात तो नहीं है। मैं तो कहीं भी बिना पैसे या इनाम के लिये नहीं लिखता।
कामता ने जैसे अपने शब्द वापस लिये- तुम्हारी बात मैं नहीं कहता भाई। तुम तो थोड़ा-बहुत मार लेते हो, लेकिन सबको तो नहीं मिलता।’ बड़ी बहू ने आदर भाव ने कहा- कन्या भाग्यवान हो तो गरीब घर में भी सुखी रह सकती है। किस्मत खराब हो, तो राजा के घर में भी रोयेगी। यह सब नसीबों का खेल है।
कामतानाथ ने उसकी ओर तारीफ़ के भाव से देखा- फिर इसी साल हमें सीता का ब्याह भी तो करना है। सीतानाथ सबसे छोटा था। सिर झुकाये भाइयों की स्वार्थ-भरी बारें सुन-सुनकर कुछ कहने के लिए उतावला हो रहा था।
अपना नाम सुनते ही बोला- ‘मेरे ब्याह की आप लोग चिन्ता न करें। मैं जब तक किसी काम में नहीं लग जाऊँगा, शादी का नाम भी नहीं लँगा, और सच पूछिये तो मैं शादी करना ही नहीं चाहता। देश को इस समय बच्चो की जरूरत नहीं, काम करने वालों की जरूरत है। मेरे हिस्से के रूपये आप कुमुद की शादी में खर्च कर दें। सारी बातें तय हो जाने के बाद यह ठीक नहीं है कि पंडित मुरारीलाल से संबंध लोड़ लिया जाये। उमा ने तेज आवाज में कहा- ‘दस हजार कहाँ से आयेंगे?’ में ।
सीता ने डरते हुए कहा- मैं तो अपने हिस्से के रूपये देने को कहता हूँ। उमा- और बाकी 7 सीता-मुरारीलाल से कहा जाये कि दहेज में कुछ कमी कर दें। वे इतने मतलबी नहीं हैं कि इस समय पर ना माने, अगर वह तीन हजार में मान जाएं तो पाँच हजार में शादी हो सकती है।
उमा ने कामतानाथ से कहा- सुनते हैं भाई साहब, इसकी बातें। बोल उठे- तो इसमें आप लोगों का क्या नुकसान है? मुझे तो इस बात से खुशी हो रही है कि भला, हम में से कोई तो ऐसा करने लायक है।
इन्हें अभी इसी समय रुपये की जरूरत नहीं है। सरकार से scholarship पाते ही हैं। पास होने पर कहीं-न-कहीं जगह मिल जायेगी। हम लोगों की हालात तो ऐसी है। एसी नहीं कामतानाथ ने दूर का सोचते हुए और समझदारी दिखाते हुए नुकसान की एक ही कही हममें से एक को दुःख हो तो क्या और लोग बैठे देखेंगे? यह अभी लड़के हैं, इन्हें क्या पता, समय पर एक रूपया एक लाख का काम करता है। कौन जानता है, कल इन्हें विदेश जाकर पढ़ने के लिए सरकारी वजीफा मिल जाये या सिविल सर्विस में आ जाए । उस वक्त सफर की तैयारियों में चार-पाँच हजार लग जाएँगे। तब किसके सामने हाथ फैलाते फिरेंगे? मैं यह नहीं चाहता कि दहेज के पीछे इनकी जिन्दगी खराब हो जाये।
इस जवाब ने सीतानाथ का भी मन बदल लिया। हिचकिचाता हुआ बोला- ‘हाँ, अगर ऐसा हुआ तो बिलकुल मुझे रूपये की जरूरत होगी।
क्या ऐसा होना असंभव ‘असभव तो मैं नहीं समझता; लेकिन मुश्किल जरूर है। वजीफे उन्हें मिलते हैं, जिनके पक्ष में लोग होते हैं, मुझे कौन] पूछता है।” कभी-कभी सिफारिशें धरी रह जाती हैं और बिना सिफारिश वाले जीत जाते हैं। तो आप जैसा सही समझें। मुझे यहाँ तक मंजूर है कि चाहे में विदेश ना जाऊँ, पर कुमुद अच्छे घर जाये। कामतानाथ ने प्रेम-भाव से कहा- अच्छा घर दहेज देने ही से नहीं मिलता भैया! जैसा तुम्हारी भाभी ने कहा, यह नसीबों का खेल है। मैं तो चाहता हूँ
कि मुरारीलाल को को जवाब दे दिया जाये और कोई ऐसा घर खोजा जाये, जो थोड़े में राजी हो जाये। इस शादी में मैं एक हजार से ज्यादा नहीं खर्च कर सकता। पंडित दीनदयाल कैसे हैं?
उमा ने खुश होकर कहा- “बहुत अच्छे। एम.ए., बी.ए. न सही, पर अच्छी आमदनी है।” दयानाथ ने एतराज किया “अम्माँ से भी पूछ तो लेना चाहिए।”
कामतानाथ को इसकी कोई जरूरत न मालूम हुई। बोले- “उनकी तो जैसे बुद्धि ही खराब हो गयी। वही पुराने समय की बातें! मुरारीलाल के नाम पर उधार खाये बैठी हैं। यह नहीं समझतीं कि वह जमाना नहीं रहा बस, कुमुद मुरारी पंडित के घर जाये, चाहे हम लोग बर्बाद हो जायें।”
उमा ने एक शक जताया की- “अम्माँ अपने सब गहने कुमुद को दे देंगी, देख लीजिएगा। मतलबी कामतानाथ नीति को काट नहीं सका। बोले- गहनों पर उनका पूरा अधिकार है। यह उनका अपना है, जिसे चाहें, दे सकती हैं।
उमा ने कहा- ‘उनका अपना पैसा है तो क्या वह उसे लुटा देंगी। आखिर वह भी तो दादा ही की कमाई किसी की कमाई हो। स्त्रीधन पर उनका पूरा हक़ है! (कामतानाथ ने कहा है।, बाते हैं। बीस हजार में तो चार हिस्सेदार हों और दस हजार के गहने अम्माँ के पास रह जायें देख लेना, इन्हीं के दम पर वह कुमुद की शादी यह कानूनी मुरारी पछित के की घर करेंगी। (उमा ने कहा अमरनाथ इतने पैसो को आसानी से नहीं छोड़ सकता। वह बहुत चालाक है। कोई न कोई नाटक कर के माँ से सारे गहने ले लेगा। उस वक्त तक कुमुद व्याह की बात करके फूलमती को भड़काना सही नहीं।
थ ने सिर हिलाकर कहा- ‘भाई, मैं इन चालों को पसंद कामतानाथ उमानाथ ने खिसियाकर कहा- ‘गहने दस हजार से कम के न होंगे।’
नहीं करता।
कामता बिना घबराई आवाज में बोले- कितने के भी हों, में अनीति में हाथ नहीं डालना चाहता।’
तो आप अलग बैठिए। हाँ, बीच में दखल ना दीजिये। (उमानाथ ने बोला) में अलग 7 रहूँगा।’ (कामता ने बोला और तुम सीता?’ (उमानाथ ने बोला) अलग रहूँगा।’ (सीतानाथ ने बोला) लेकिन जब दयानाथ से यही सवाल किया गया, तो वह उमानाथ का साथ देने को तैयार हो गया। दस हजार में ढाई हजार तो उसके होंगे ही। इतनी बड़ी रकम के लिए यदि कुछ तरीका करना भी पड़े तो माफ करने लायक है।
फूलमती रात को खाना करके लेटी थी कि उमा और दया उसके पास जा कर बैठ गये । दोनों ऐसा मुँह बनाए हुए थे, मानो कोई भारी मुसीबत आ पड़ी हो।
फूलमती ने डर से पूछा- “तुम दोनों घबड़ाये हुए लगते हो?”
उमा ने सिर खुजलाते हुए कहा- “समाचार-पत्रों में लेख लिखना बड़े खतरे का काम है अम्माँ!”
कितना ही बचकर लिखो, लेकिन कहीं-न-कहीं पकड़ हो ही जाती है। दयानाथ ने एक लेख लिखा था। उस पर पाँच हजार की जमानत माँ गी गयी है। अगर कल तक जमा न कर दी गयी, तो गिरफ्तार हो जायेंगे और दस साल की सजा हो जायेगी। फूलमती ने सिर पीटकर कहा- “ऐसी बातें क्यों लिखते हो बेटा? जानते नहीं हो, आजकल हमारे दिन बुरे आये हुए हैं। जमानत किसी तरह टल नहीं सकती?”
दयानाथ ने अपराधी-भाव से जवाब दिया- “मैंने तो अम्माँ, ऐसी कोई बात नहीं लिखी
कि जरा भी रहम नहीं करता। मैंने जितनी दौड़-धूप हो सकती थी, वह सब कर ली।” तो तुमने कामता से रूपये का इंतजाम करने को नहीं कहा?’ (फूलमती ने कहा
थी, लेकिन किस्मत को क्या करूँ। हाकिम जिला इतना सख्त है।
उमा ने मुँह बनाया- “उन्हें तो तुम जानती हो अम्मा, उन्हें रूपये जान से प्यारे हैं। इन्हें चाहे कालापानी ही हो जाये, वह एक रुपया नहीं देंगे।”
दयानाथ ने साथ दिया “मैंने तो उनसे इसका जिक्र ही नहीं किया।”
फूलमती ने चारपाई से उठते हुए कहा- “चलो, मैं कहती हूँ, देगा कैसे नहीं? रूपये इसी दिन के लिए होते हैं कि या गाडकर रखने के लिए?”
उमानाथ ने माँ को रोककर कहा- नहीं अम्माँ, उनसे कुछ न कहो। रूपये तो न देंगे, उल्टे और हाय-हाय मचायेंगे। उनको अपनी नौकरी बचानी है, इन्हें घर में रहने भी न देंगे। अफ़सरों में जाकर बता देंगे तो इसमें शक नहीं।
फूलमती ने लाचार होकर कहा- ‘तो फिर जमानत का क्या करोगे? मेरे पास तो कुछ नहीं है। हाँ, मेरे गहने हैं, इन्हें ले जाओ, कहीं रखकर जमानत दे दो। दयानाथ कानों पर हाथ रखकर बोला- यह तो नहीं हो सकता अम्माँ, कि तुम्हारे जेवर लेकर मैं अपनी जान बचाऊँ। दस-पाँच साल की कैद ही तो होगी,
और आज से कान पकड़ो कि किसी पत्र में एक शब्द भी न लिखोगे।
काट लूँगा। यहीं बैठा-बैठा क्या कर रहा हूँ!
फूलमती परेशान हुए बोली- केसी बातें मुंह से निकालते हो बेटा, मेरे जीते-जी तुम्हें कौन गिरफ्तार कर सकता है! उसका मुँह जला दूंगी। गहने लिए हैं या और किसी दिन के लिए! जब तुम्हीं न रहोगे, तो गहने लेकर क्या करूंगी!
उसने घने लाकर उसके सामने रख दिए।
इसी दिन
उमा की ओर देखा और बोला- “आपकी क्या राय है भाई साहब? इसी मारे मैं कहता था, अम्मों को बताने की जरूरत नहीं। जेल ही तो हो जाती उमा ने जैसे साथ देते हुए कहा- “यह कैसे हो सकता था कि इतनी बड़ी बात हो जाती और अम्माँ को पता ना होता। मुझसे यह नहीं हो सकता था कि सुनकर चुप बैठ जाता ; मगर अब करना क्या चाहिए, यह मैं खुद समझ नहीं कर सकता। न तो यही अच्छा लगता है कि तुम जेल जाओ और न यही
या और कुछ?
अच्छा लगता है कि अम्माँ के गहने रखे जायें।” फूलमती ने दुःख भरी आवाज से पूछा- “क्या तुम समझते हो, मुझे गहने तुमसे ज्यादा प्यारे हैं? मैं तो जान तक दे हैं, गहनों की तो बात ही क्या है।” ने मजबूती से कहा- “अम्माँ, तुम्हारे गहने तो नहीं लूँगा, चाहे मुझ पर कितनी भी परेशानी क्यों न आ जाए। जब आज तक तुम्हारी कुछ सेवा न कर सका, तो किस तरह से तुम्हारे गहने ले जाऊँ? मुझ जैसे बेटे को तो तुम्हारे घर में जन्म ही नहीं लेना चाहिए था। मैंने हमेशा तुम्हे दुःख दिया है।” फूलमती ने भी उतनी ही मजबूती से कहा-“अगर इस तरह नहीं लोगे तो, में खुद जा कर इन्हे गिरवी रख दूंगी और खुद हाकिम जिला के पास जाकर
जमानत जमा करा के आऊँगी, अगर तुम्हारा मन है तो यह भी कर के देख लो मेरे मर जाने के बाद क्या होगा मुझे नहीं पता, भगवान् ही जानें, लेकिन
जब तक जिन्दा हूँ तुम सब पर कोई परेशानी नहीं आने दूंगी।”
उमानाथ ने जैसे माँ पर एहसान करते हुए कहा- “अब तो तुम्हारे लिए कोई रास्ता नहीं है दयानाथ। क्या परेशानी है, ले लो, लेकिन याद रखो, जैसे ही
हाथ में रूपये आ जाएं, गहने छुड़वाने पड़ेंगे। सच ही कहते हैं, माँ होना एक बहुत बड़ी बात है। माँ के अलावा इतना प्यार और कौन कर सकता है? हम बड़े बदकिस्मत हैं कि माँ के लिए जितना प्यार रखना चाहिए. हम उतना नहीं व करते।
दोनों ने जैसे बड़ा परेशान होकर गहनों का छोटा बक्सा लिया और चले गए। माँ प्यार-भरी आँखों से उनकी ओर देख रही थी और उसका मन हुआ, जैसे छोटे बच्चे की तरह उन्हें अपनी गोद में उठा कर खूब सारा प्यार और आशीर्वाद दे।
आज उसे कई महीनों
बाद अपना
की रास्ता भी हूँढती रहती थी। इ खोया हुआ हक पाकर पाकर वह खुश हो गयी।
कुछ दे देने जैसी खुशी मिली हो। वह घर की मुखिया होने वाली सोच रखने के साथ-साथ घर के लिए त्याग करने
हक़ या लालच या ममता की वहाँ महक तक नहीं थी त्याग ही उसकी ख़ुशी और त्याग ही उसका हक़ है। आज अपना
तीन महीने और गुजर गुजर गये। माँ के गहनों पर हाथ साफ करके चारों भाई उसकी चमचागिरी करने लगे थे। अपनी पत्नियों को भी समझाते थे, कि उसका दिल न दुखायें। अगर थोड़े-से अच्छे व्यवहार से उसकी आत्मा को शांति मिलती है, तो इसमें नुकसान् ही क्या है। चारों अपनी मर्जी से ही सब कुछ करते थे, पर माँ से बातचीत कर लेते थे या ऐसी मीठी मीठी बातें करते थे कि वह उनकी बातें मान लेती और हर एक काम में राजी हो जाती। बाग को बेचना उसे बहुत बुरा लगता था, लेकिन चारों ने ऐसी बात बनाई कि वह उसे बेचने पर तैयार हो गयी, लेकिन कुमुद की शादी के बारे में माँ राजी नहीं हो सरकी। माँ मुरारीलाल के साथ ही शादी के लिए अटकी हुई थी। लड़के दीनदयाल पर अड़े हुए थे। एक दिन आपस में लड़ाई हो गयी।
फूलमती ने कहा- “माँ -बाप की कमाई में बेटी का हिस्सा भी है। तुम्हें सोलह हजार का एक बाग मिला, पच्चीस हजार का एक मकान। बीस हजार नकद में, तो क्या पाँच हजार भी कुमुद का हिस्सा नहीं है?” कामता ने बड़े प्यार से कहा- “अम्मां, कुमुद आपकी लड़की है, तो हमारी बहन है। आप दो-चार साल में इस दुनिया से चले जाओग। पर हमारा और उसका बहुत दिनों तक रिश्ता रहेगा। तब हम कोई ऐसी बात नहीं करेंगे, जिससे उसके साथ बुरा हो, लेकिन हिस्से की बात कहती हो, तो कुमुद का हिस्सा नहीं है। दादा जीवित थे, तब दूसरी बात थी। उसकी शादी में जितना चाहते, खर्च करते। कोई उन्हें रोक नहीं सकता था, लेकिन अब तो हमें
कुछ
एक-एक पैसे की बचत करनी पड़ेगी। जो काम हजार में हो जाये, उसके लिए पाँच हजार खर्च करना कहाँ की बुद्धिमानी है? उमानाथ ने सुधारा- “पाँच हजार क्यों, दस हजार कहिए।
भौ़ों को सिकोड़कर कहा- “नहीं, में पाँच हजार ही कहुँगा; एक शादी में पाँच हजार खर्च करने की हमारी हैसियत नहीं है। फूलमती ने जिद में कहा- “शादी तो मुरारीलाल के बेटे से ही होगी, पाँच हजार खर्च हों, चाहे दस हजार। मेरे पति की कमाई है। मैंने एक-एक कर के जोड़ी है। अपनी मर्जी से खर्च करूँगी। तुम्हीं में मेरे
कामता ने
किसी से कुछ माँ गती नहीं। तुम
जन्म नहीं लिया है। कुमुद भी उसी इसी घर में पैदा हुई है। मेरी लिए तुम सब बराबर हो। मैं
तमाशा देखो, -कुछ कर लूँगी। बीस हजार में पाँच हजार कुमुद का है।”
कामतानाथ अब गुस्से में आये बिना नहीं रह सका। बोला- “अम्मा, तुम बिना मतलब में बात बढ़ा रही हो। जिन रूपयों को तुम अपना समझती हो, वह नहीं है, तुम हमसे बिना पूछे उसमे से कुछ नहीं खर्च कर सकती”
फूलमती को जैसे साप सुंघ गया “क्या कहा! फिर से कहना! मैं अपने ही जोड़े हुए रूपये अपनी मर्जी से नहीं खर्च कर सकती?”
कामतानाथ- “वह रूपये तुम्हारे नहीं रहे, हमारे हो गये।” फूलमती- “तुम्हारे होंगे; लेकिन मेरे मरने के बाद
नहीं, दादा के मरते ही हमारे हो गये! उमानाथ ने बेशर्मी से कहा- अम्माँ, कानून तो जानतीं नहीं, बिना मतलब में उछलती रहती हैं। फूलमती रोकर बोली- “भाड़ में जाये तुम्हारा कानून। में ऐसे कानून को नहीं जानती। तुम्हारे दादा ऐसे कोई बहुत बड़े सेठ नहीं थे। मैंने ही मेहनत करके
यह घर बनाया है, नहीं तो आज बैठन जगह न मिलती! मेरे जीते-जी तुम मेरे रूपये नहीं छू सकते। मैंने तीन भाइयों की शादी में दस-दस हजार
की शादी में भी खर्च करोगी।
खर्च किये हैं। वही मैं कुमुद की पको कुछ भी खर्च करने का अधिकार नहीं है।” कामतानाथ भी जिससे उसे बोला- उमानाथ ने बड़े भाई को डाँटा- “आप बिना बात अम्माँ के मुँह लगते हैं भाई साहब! मुरारीलाल को पत्र लिख दीजिए कि तुम्हारे यहाँ कुमुद की शादी न
होगी । बस.टी । बस, छुट्टी हुई। कायदा-कानून तो जानती नहीं, बेकार की बहस करती हैं। फूलमती ने आराम से कहा- “अच्छा, क्या कानून है, जरा मैं भी सुनुँ।”
उमा ने कहा- “कानून यही है कि बाप मरने के बाद जायदाद बेटों की हो जाती है। माँ का हक केवल रोटी-कपड़े का है।”
फूलमती ने तड़पकर पूछा- “किसने यह = बनाया है?” कानून बनाया
उमा शांत और ठहराव से बोला- “हमारे ऋषियों ने, महाराज मनु ने, और किसने?” फूलमती एक पल चुप रहकर दुखी होकर बोली- “तो इस घर में में तुम्हारे टुकड़ों पर पड़ी हुई हूँ?”
उमानाथ ने जज के जैसे बेरहमी से कहा- “तुम जैसा समझो।” नती को बहुत गुस्सा आया, वो चिल्लाने लगी। उसके मुँह से आग जैसे शब्द निकलने लगे “मॅने घर बनवाया, मैंने पैसे जोड़े , मैंने तुम्हें जन्म दिया, फूलमती को
पाला और आज मैं इस घर में गैर हूँ? मनु का यही कानून है? और तुम उसी कानून पर चलना चाहते हो? अच्छी बात है। अपना घर ले लो। मुझे तुम पर बोझ बनकर नहीं रहना। इससे कहीं अच्छा है कि मर जाऊँ। चाह रे अधेर! मैंने पेड़ लगाया और मैं ही उसकी छाँह में खड़ी नहीं हो सकती; अगर यही
कानून है, तो इसमें आग लग जाये।” चारों बेटों पर माँ के इस गुस्से और चिल्लाने का कोई असर न हुआ। कानून का मजबूत कवच उनकी रक्षा कर रहा था। इन काँटों का उनন पर क्या असर था?
जरा देर में फूलमती उठकर चली गयी। आज जीवन में पहली बार उसे प्रेम से भरे माँ बेटे रिश्ता के रिश्ते से नफरत हो रही थी। जिस रिश्ते को उसने जीवन का सबसे बड़ा धन समझा था, जिसके पैरो पर वह हमेशा अपनी सारी इच्छाओ और जरूरतों को खत्म करके अपने को खुशनसीब मानती
थी, वही मातृत्व आज उसे आग के कुंड-सा लग रहा था, जिसमें उसका जीवन जलकर राख हो गया। शाम हो गयी थी। दरवाजे पर नीम का पेड़ सिर झुकाए, शांत खड़ा था, मानो संसार की छल पर दुखी हो रहा हो। छिपता हुआ सूरज फूलवती के रिश्ते की तरह अपनी ही आग में जल रहा था।
फूलमती अपने कमरे में जाकर लेटी, तो उसे मालूम हुआ, उसकी कमर टूट गयी है। पति के मरते ही अपने पेट के लड़के उसके दुश्मन हो जायेंगे, उसने सपने में भी न सोचा था। जिन लड़कों को उसने अपना दूध पिला-पिलाकर पाला, वही आज उसके दिल पर चोट कर रहे हैं! अब वह घर उसे काँटों का बिस्तर लग रहा था। जहाँ उसकी कुछ कद्र नहीं, कुछ गिनती नहीं, वहाँ अनाथों की तरह पड़ी रोटियाँ खाये, यह उसके अभिमानी स्वभाव के लिए
मुश्किल था। पर रास्ता ही क्या था? वह लड़कों से अलग होकर रहे भी तो नाक किसकी कटेगी! संसार उसे थूके तो क्या, और लड़कों को धूके तो क्या; बदनामी तो उसी की है। दुनिया यही तो कहेगी कि चार जवान बेटों के होते बुढ़िया अलग पड़ी
हुई मजूरी करके पेट पाल रही है! जिन्हें उसने हमेशा नीच समझा, दही उस पर हँसेंगे। नहीं, वह अपमान इस अपमान से कहीं ज्यादा दुःख देने वाला धा। अब अपना और घर की बात अंदर ही रहना सही है। हाँ, उसे खुद को इन हालत के लिए तैयार करना पड़ेगा। समय बदल गया है। अब तक मालकिन बनकर रही,अब नौकर बनकर रहना पड़ेगा। भगवान् की यही इच्छा है। अपने बैटों की बातें और लातें पराये लोगो की बातों और लातों की तुलना में फिर भी सही हैं।
वह बड़ी देर तक मुँह छुपाये अपने हाल पर रोती रही। सारी रात इसी रोने -धोने में कट गयी। सुबह हुई तो,जैसे कोई कैदी छिपकर जेल से भाग आया हो। फूलमती अपने नियम के खिलाफ आज सुबह ही उठी, रात-भर मे उसका मन बदल चुका था सारा घर सो रहा था और वह आँगन में झाडू लगा
रही थी। रात-भर ओस में भीगी हुई उसकी पक्की जमीन उसके नंगे पैरों में काँटों की तरह चुभ रही थी। पंडित जी उसे कभी इतने सबेरे उठने न देते थे। सर्दी से उसे नुकसान था। पर अब वह दिन नहीं रहे। विधि उस को भी समय के साथ बदल देने की कोशिश कर रही थी। झाडू लगाकर उसने आग जलायी और चावल-दाल की कंकड़ियाँ चुनने लगी। कुछ देर में लड़के जागे। बहुएँ उठी। सभी ने बुढ़िया को सर्दी से सिकुड़े हुए काम करते देखा; पर किसी ने यह न कहा कि अम्माँ, क्यों परेशान होती हो? शायद सब-के-सब बुदढ़िया के इस बदलाव पर
खुश थे।
आज से फूलमती का यही नियम हो गया कि जी तोड़कर घर का काम करना और बाकी बातो से अलग रहना। उसके चेहरे पर जो एक गौरव झलकता रहता था, उसकी जगह अब गहरा दर्द नजर आती था। जहाँ बिजली जलती थी, वहाँ अब तेल का दिया टिमटिमा रहा था, जिसे बुझा देने के लिए हवा का एक हलका-सा झोंका काफी है। मुरारीलाल को इनकारी-पत्र लिखने की बात पक्की हो चुकी थी। दूसरे दिन पत्र लिख दिया गया। दीनदयाल से कुमुद का ब्याह पक्का हो गया।
दीनदयाल की उम्र चालीस से ज्यादा थी, कुछ जिद्दी से भी थे, पर रोटी-दाल से खुश थे। बिना किसी ठहराव के शादी करने पर मान गये। तारीख कुछ पक्की हुई, बारात आयी, व्याह हुआ और कुमुद बिदा कर दी गयी फूलमती के दिल पर क्या बीत रही थी, इसे कौन जान सकता है; पर चारों भाई बहुत खुश थे, मानो उनके दिल का काँटा निकल गया हो। बड़े घर की लड़की, मुँह कैसे खोलती? भाग्य में सुख भोगना लिखा होगा, सुख भोगेगी; दुख भोगना लिखा होगा, दुख झेलेंगी। भगवान् की मर्जी मजबूर लोगों का आखरी सहारा है। घरवालों ने जिससे ब्याह कर दिया, उसमें हजार कमी हों, तो भी वह उसका पति है। उसके खिलाफ जाना सोच से परे था।
फूलमती ने किसी काम मे दखल न दिया। कुमुद को क्या दिया गया, मेहमानों का कैसा स्वागत किया गया, किसके यहाँ से नेवते में क्या आया, किसी बात से भी उसे मतलब न था। उससे कोई सलाह भी ली गयी तो यही कहा- “बेटा, तुम लोग जो करते हो, अच्छा ही करते हो। मुझसे क्या पूछते हो!” जब कुमुद के लिए दरवाजे पर डोली आ गयी और कुमुद माँ के गले लिपटकर रोने लगी, तो वह बेटी को अपनी कोठरी में ले गयी और जो कुछ सौ पचास रूपये और दो-चार मामूली गहने उसके पास बच रहे थे, बेटी को देकर बोली-“बेटी, मेरी तो मन की मन में रह गयी, नहीं तो क्या आज तुम्हारा व्याह इस तरह होता और तुम इस तरह विदा की जातीं!”
आज तक फूलमती ने अपने गहनों की बात किसी से न कही थी। लड़कों ने उसके साथ जो धोखा किया था, इसे चाहे अब तक न समझी हो, लेकिन इतना जानती थी कि गहने फिर न मिलेंगे और दूरियाँ बढ़ने के सिवा कुछ हाथ न लगेगा; लेकिन इस मौके पर उसे अपनी सफाई देने की जरूरत महसूस हुई। कुमुद । यह मन में लेकर जाये कि अम्माँ ने अपने गहने बहुओं के लिए रख छोड़े, इसे वह किसी तरह न सह सकती थी, इसलिए वह उसे अपनी कोठरी में ले गयी थी। लेकिन कुमुद को पहले ही इस बात का पता चल चुका था, उसने गहने और रूपये आँचल से निकालकर माँ के पैरो में रख दिये और बोली- “अम्माँ, मेरे लिए तुम्हारा आशीर्वाद लाखों रूपयों के बराबर है। तुम इन चीजों को अपने पास रखो। न जाने अभी तुम्हें किन मुसीबतों का
सामना करना पड़े।”
फूलमती कुछ कहना ही चाहती थी कि उमानाथ ने आकर कहा- क्या कर रही है कुमुद? चल, जल्दी कर। वह लोग हाय-हाय कर रहे हैं, फिर तो दो-चार महीने में आयेंगी ही, जो कुछ लेना-देना हो, ले लेना।” फूलमती के घाव पर जैसे नमक पड़ गया। बोली- “मेरे पास अब क्या है भैया, जो इसे मैं दुँगी? जाओ बेटी, भगवान तुम्हारे पति की उम्र लम्बी करें।” कुमुद विदा हो गयी। फूलमती बेहोश होकर गिर पड़ी। जीवन की इच्छाएं जैसे खत्म हो गयी।
एक साल बीत गया।
फूलमती का कमरा घर में सब कमरों से बड़ा और हवादार था। कई महीनों से उसने बड़ी बहू के लिए खाली कर दिया था और खुद एक छोटी-सी कोठरी में रहने लगी, जैसे कोई भिखारिन हो। बेटों और बहुओं से अब उसे जरा भी प्यार न था, वह अब घर की नौकरानी थी। घर के किसी सदस्य, किसी चीज, किसी बात से उसे मतलब न था। वह केवल इसलिए जीती थी कि मौत न आती थी। सुख या दुख का अब उसे जरा भी भी अहसास नहीं था। उमानाथ के दवाई की दुकान खुली, दोस्तों की दावत हुई, नाच-तमाशा हुआ।
दयानाथ का प्रेस खुला, फिर जलसा हुआ। सीतानाथ को scholarship मिला और विलायत गया, फिर उत्सव हुआ। कामतानाथ के बड़े लड़के का
यज्ञोपवीत संस्कार हुआ. रहा और मरकर उठा।
- फिर र धूम-धाम हुई, लेकिन फूलमती के चेहरे पर खुशी की छाया तक न आयी! कामताप्रसाद टाइफाइड में महीने-भर बीमार
दयानाथ ने अबकी अपने पत्र का प्रचार बढ़ाने के लिए सच में एक आपत्तिजनक लेख लिखा और छ: महीने की सजा पायी। उमानाथ ने एक फौजदारी के मामले में रिश्वत लेकर गलत रिपोर्ट लिखी और उसकी सनद छीन ली गयी; पर फूलमती के चेहरे पर दुःख की परछायी तक न पड़ी। उसके जीवन में अब कोई आशा, कोई दिलचस्पी, कोई चिन्ता न थी। बस, जानवरो की तरह काम करना और खाना, यही उसकी जिन्दगी के दो काम धे। जानवर मारने से काम करता है; पर खाता है मन से। फूलमती बिना कहे काम करती थी; पर खाती थी जहर के टुकड़े की तरह। महीनों सिर में तेल न पड़ता, महीनों न बोलते, कुछ परवाह नहीं। नासमझ हो गयी थी।
सावन की झड़ी लगी हुई थी। मलेरिया फैल रहा था। आकाश में काले बादल थे, जमीन पर काला पानी। इस मौसम में बीमारिया फैलती है। घर की नौकरानी बीमार पड़ गयी। फूलमती ने घर के सारे बरतन मॉजे, पानी में भीग-भीगकर सारा काम किया । फिर आग जलायी और चूल्हे पर पतीलियाँ चढ़ा दी। लड़कों को समय पर खाना मिलना चाहिए। अचानक उसे याद आया, कामतानाथ नल का पानी नहीं पीते। उसी बारिश में गंगाजल लाने चली।
कामतानाथ ने पलंग पर लेटे-लेटे कहा- “रहने दो अम्माँ, में पानी भर लाऊँगा, आज नौकरानी ने कुछ नहीं किया।” सर्दी हो जायगी।”
फूलमती ने आसमान ओर देखकर कहा- “तुम भीग जाओगे बेटा, कामतानाथ बोले- तुम भीग रही कहीं बीमार न पड़ जाओ। फूलमती बोली- ‘मैं बीमार न पडूँगी। मुझे भगवान् ने अमर कर दिया है।”
उमानाथ भी वहीं बैठा हुआ था। उसके दवाई की दुकान में कुछ आमदनी न होती थी, इसलिए बहुत परेशान था। भाई-भाभी को देखता रहता था। बोला जाने भी दो भैया! बहुत दिनों बहुओं पर राज कर चुकी हैं। बदले में करने दो “
गंगा बढ़ी हुई थी, जैसे समुद्र हो। किनारे के सामने के कूल से मिला हुआ था। किनारों के पेड़ो की सिर्फ चोटियां पानी के ऊपर रह गयी थीं। घाट उऊपर तक पानी में डूब गये थे। फूलमती मटका लियें नीचे : उतरी, पानी भरा और ऊपर जा रही थी कि पाँव फिसला। वो सँभल न सकी और पानी में गिर पड़ी। हाथ-पाँव चलायें, फिर लहरें उसे नीचे खींच ले गयीं। किनारे पर दो-चार पंडित चिल्लाए-“अरे दौड़ो, बुढ़िया डूबी जाती पल-भर हाथ
भी लेकिन फूलमती लहरा एक ने पूछा- “यह कौन बुढ़िया थी?”
गयी थी, उन बल खाती हुई लहरों में, जिन्हें देखकर ही दिल काँप उठता था।
दूसरा -“अरे, वही पंडित अयोध्यानाथ की विधवा है।” पहला -“अयोध्यानाथ तो बड़े आदमी थे?”
दूसरा- “हाँ थे तो, पर इसके भाग्य में ठोकर खाना लिखा था।”
पहला- “उनके तो कई लड़के बड़े-बड़े हैं और सब कमाते हैं?” दूसरा- “हाँ, सब हैं भाई, मगर भाग्य भी तो कोई चीज़ है!”
सीख – मुंशी प्रेमचंद जी की यह कहानी बताती है कि माँ अपनी औलाद के लिए क्या-क्या दुःख नहीं सहती, लेकिन मतलबी बच्चे अपने सपनो को पूरा करने के लिए उन्हें भी धोखा देने से नहीं चूकते पर ऐसा करके चो कभी खुश नहीं रह सकते। माँ की ममता ऐसी होती है कि वो अंत तक अपने बच्चों के भले के लिए ही सोचती रहती है.