THE TATAS by Girish Kuber and Vikrant Pande.

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THE TATAS by Girish Kuber and Vikrant Pande.
About Book

About Book

टाटा, एक ऐसा नाम जो हिन्दुस्तान का बच्चा-बच्चा जानता है. न्यू इंडिया की नींव बनाने में टाटा ग्रुप का बहुत बड़ा हाथ है. देश की तरक्की और बेहतरी के लिए टाटा ने काफी कुछ किया है जिसे देशवासी हमेशा याद रखेंगे. टाटा बिजनेस ग्रुप सिर्फ प्रॉफिट कमाने के बारे में नहीं सोचता बल्कि सोसाइटी के हर क्लास को साथ लेकर चलने में यकीन रखता है और यही इसकी असली पहचान है. इस बुक में आप सीखेंगे कि एक बिजनेसमेन के अंदर वो कौन सी क्वालिटीज होती है जो उसे अपना बिजनेस सस्टेन रखने में हेल्प करती है.

ये बुक किस-किसको पढ़नी चाहिए?

हर उस इन्सान को जो देश के लीडिंग बिजनेस ग्रुप टाटा और उनके लीडर्स के बारे में जानना चाहता है. जमशेदजी, जेआरडी और रतन टाटा, टाटा ग्रुप के तीन पिलर्स जिन्होंने टाटा की परंपरा को आगे बढ़ाया, इनके बारे में जानने के लिए ये बुक ज़रूर पढ़े.

इस बुक के ऑथर कौन है?

"द टाटा" बुक के ऑथर गिरीश कुबेर एक मराठी जर्नलिस्ट और राइटर है. 2010 से वो डेमोक्रेसी के मैनेजिंग डायरेक्टर है. डेमोक्रेसी में आने से पहले वो द इकोनोमिक्स टाइम्स में पोलिटिकल ब्रांच के एडिटर थे. राइटिंग के अलावा इंटरनेशनल इकोनोमिक्स और पोलिटिक्स में उनका खास इंटरेस्ट है. उन्हें मारवारी फाउंडेशन का परबोधन ठाकरे समाज परबोधन अवार्ड भी मिल चूका है.

इंट्रोडक्शन (परिचय)

टाटा ग्रुप एक इन्डियन ग्लोबल बिजनेस है और ये बात हम प्राउड से बोल सकते हैं. लेकिन टाटा ग्रुप की इस फेनामोंनल सक्सेस का राज़ क्या है? कैसे उनका सफर शुरू हुआ? टाटा कल्चर क्या है? नाम, पॉवर, पैसा और सक्सेस-टाटा के पास सबकुछ है. लेकिन ऐसा क्या है जो उन्हें दुनिया के बाकी बिलेनियर्स से अलग बनाता है? आपके इन्ही सब सवालों के जवाब और बाकी और भी बहुत सी बातें आप इस बुक में पढ़ेंगे.

नुस्सेरवाजी ऑफ़ नवसारी (Nusserwanji of Navsari)

टाटा ग्रुप की शुरुवात एक इंसान ने की थी जिनका नाम था नुस्सरवान. 1822 में जब उनका जन्म हुआ था तो एक एस्ट्रोलोजर ने कहा था कि एक दिन नुसरवान सारी दुनिया में राज़ करेगा. वो बहुत अमीर आदमी बनेगा लेकिन नवसारी में पैदा हुआ हर एक बच्चा अच्छी किस्मत लेकर ही पैदा होता था.

लेकिन नुसरवाजी टाटा औरो से अलग थे क्योंकि उन्होंने उस एस्ट्रोलोज़र की बात को सच कर दिखाया था. जैसा कि उन दिनों रिवाज़ था, नुसरवाजी टाटा की भी बचपन में ही शादी करा दी गई थी और 17 साल की उम्र में वो एक बेटे के बाप भी बन गए थे. बच्चे का नाम जमशेद रखा गया. वो 1839 में पैदा था.

नवसारी के ज्यादातर लोग

अपने गांव से बाहर जाना पसंद नहीं करते थे. उनके लिए उनका गाँव ही पूरी उनकी पूरी दुनिया था, लेकिन नुसरवांजी डिफरेंट थे, वो मुंबई जाकर कोई बिजनेस स्टार्ट करना चाहते थे. वो अपनी फेमिली के पहले इंसान थे जो नवसारी से बाहर गया हो. नुसरवांजी ना तो ज्यादा पढ़े-लिखे थे और ना ही उनके पास बिजनेस के लायक पैसा था, यहाँ तक कि उन्हें बिजनेस की कोई नॉलेज भी नहीं थी.

पैरामीटर विवरण
नाम नुसरवाजी टाटा
जन्म 1822
शादी 17 साल की उम्र में
बेटा जमशेद

लेकिन हाँ, उनके अंदर कुछ कर गुजरने का पैशन ज़रूर था, उनके सपने काफी बड़े थे और यही सपने उन्हें मुंबई लेकर आए. अपने साथ वो अपनी वाइफ और बेटे को भी ले गए. मुंबई जाकर उन्होंने एक फ्रेंड की हेल्प से कॉटन का बिजनेस शुरू किया. नुसरवाजी अपने बेटे के लिए बड़े-बड़े सपने देखते थे. उनका बिजनेस अच्छा चल पड़ा था और अपने बेटे को बेस्ट एजुकेशन देने के लिए उनसे जो बन पड़ा उन्होंने सब कुछ किया, फिर कुछ ही सालों बाद जमेशदजी ने अपनी कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर ली.

नुसरवाजी चाहते थे कि उनके बेटे को इंटरनेशनल बिजनेस एक्सपोजर मिले इसलिए उन्होंने अपने बेटे को होंग-कोंग की ब्रिटिश कॉलोनी में भेजा. होंग-कोंग जाकर जमेशद जी ने तीन पार्टनर्स के मिलकर के बिजनेस किया. और इस तरह टाटा कॉटन और ओपियम के डीलर बन गए.

दादा भाई टाटा और उनका योगदान

नुसरवांजी का एक ब्रदर-इन- हांगकांग में ओपियम का डीलर था. उसका नाम था दादा भाई टाटा. दादा भाई टाटा का बेटा रतनजी दादाभाय टाटा यानि आरडी जमेशदजी से 17 साल बड़ा था. आरडी एक ओपियम डीलर था, साथ ही वो परफ्यूम्स और पल्ल्स का भी बिजनेस करता था. वो अक्सर बिजनेस के सिलसिले में फ्रांस जाता रहता था.

आरडी को बिजनेस पर्पज के लिए फ्रेंच आनी ज़रूरी थी इसलिए जमेशदजी ने उसके लिए एक फ्रेंच टीचर रखा. लेकिन आरडी को उस लडका की नाम था सुजाने. आरडी एक विडो था और उम्र में सुजाने से बड़ा भी था. फिर जल्दी ही दोनों की शादी भी हो गयी. लेकिन आरडी को डर था कि उसकी क्न्जेर्ेटिव पारसी कम्यूनिटी सुजाने को एक्सेप्ट नहीं करेगी. इसलिए उसने सुजाने को बोला कि वो ज़ोरोएस्थेनिज्म में कन्वर्ट हो जाए.

दादा भाई टाटा विवरण
व्यवसाय ओपियम, परफ्यूम्स, पल्ल्स
बेटा रतनजी दादाभाय टाटा (आरडी)
पार्टनर सुजाने (बाद में सुनी)
बच्चे पांच, जिसमें जहाँगीर (जेआरडी) शामिल

सुजाने पारसी बनने को रेडी थी उसने कन्वर्ट कर लिया और अपना नाम बदलकर सूनी रख लिया. आरडी और सूनी के पांच बच्चे हुए. उनके दुसरे बच्चे का नाम जहाँगीर था जिसे सारी दुनिया जेआरडी के नाम से जानती है. टाटा फेमिली का बिजनेस अच्छा चल रहा था. वो लोग चाइना और यूरोप को ओपियम और कॉटन एक्सपोर्ट करते थे और इंडिया में चाय, टेक्सटाइल और गोल्ड इम्पोर्ट करते थे.

उनका बिजनेस तेज़ी से ग्रो कर रहा था, और जल्द ही जमेशदजी ने शंघाई में अपना सेकंड ऑफिस खोल लिया था. जमशेद सुजाने को जी ने ही यूरोप में टाटा बिजनेस को योरोप में एस्टेब्लिश किया था. उस टाइम पैसेंजर एयरलाइन्स नहीं होती थी इसलिए उन्हें शिप से ट्रेवल करना पड़ता था, तब कूज शिप्स भी नहीं चलते थे इसलिए लोग अपने कार्गो के साथ ही ट्रेवल करते थे.

एक आदमी जिसने सपने बुने (A Man Who Sowed Dreams)

इंग्लैण्ड जाकर जमशेदजी ने मेन्यूफेक्चरिंग के बारे में काफी कुछ सीखा. अब वो कॉटन ट्रेडिंग के साथ-साथ मेन्यूफेक्चरिंग बिजनेस भी करना चाहते थे. 1873 में जमेशदजी ने अपनी खुद की स्पिनिंग और वीविंग मिल खोली.

उस जमाने में ज्यादातर बिजनेसमेन बोम्बे या अहमदाबाद में मिल्स खोलते थे लेकिन जमशेदजी ने नागपुर सिटी चूज़ की जो कॉटन फार्म्स के नज़दीक थी. जमशेदजी ने इंग्लैण्ड से बेस्ट क्वालिटी की मशीनरी आर्डर की और मशीनरी ऑपरेशन के एक्सपर्ट भी हायर किये. अपनी इस नए बिजनेस का नाम उन्होंने एम्प्रेस मिल्स रखा था.

लेकिन मिल चलाने में सबसे बड़ा चेलेंज था वर्क कल्चर, नागपुर के लोग आरामपंसद ज्यादा थे जबकि बॉम्बे में लोग छुट्टी वाले दिन भी काम करते थे. लेक देने के बजाये जगधगपुर में रोज़ सिर्फ 80% लोग ही काम प आते थे. लोग छोटी-छोटी बातो पे छुट्टी मार लेते थे. ऐसे में एम्प्लोईज को पनिशमेंट ने एक पोजिटिव सोल्यूशन निकाला. उन्होंने एग्प्लोईज के लिए प्रोविडेंट फंड स्कीम या कहे कि पेंशन प्लान निकाला ताकि रटायरमेंट के बाद भी लोगों की जिंदगी आराम से चल सके, जमशेदजी ने एक इंश्योरेंस स्कीम भी शुरू की.

एम्प्रेस मिल्स विवरण
शुरूआत 1873
स्थान नागपुर
विशेषताएँ स्पिनिंग और वीविंग मिल
चुनौतियाँ वर्क कल्चर, एम्प्लोई पनिशमेंट, प्रोविडेंट फंड स्कीम

अगर कोई एम्लोई काम के दौरान घायल हो जाए या उसकी डेथ हो जाए तो उसे और उसकी फेमिली को मेडिकल एक्सपेंस मिल सके. वो अपने वर्कर्स के लिए स्पेशल इवेंट्स जैसे स्पोर्टस डे और फेमिली के भी ऑर्गेनाइज़ कराते थे जहाँ पर गेम्स के चिनर को ईनाम के तौर पर कैश, रिस्टवाचेस, या गोल्ड चेन्स मिलती थी. ये जमशेदजी के इनोवेटिव आईडियाज का ही कमाल था जो एम्प्रेस मिल के वर्कर्स अपने काम को लेकर और ज्यादा मोटीवेटेड फील करने लगे थे. और उनके वर्क एथिक्स में भी काफी चेंजेस आये थे.

इस तरह के पेंशन्स प्लान और इंश्योरेंस बहुत इम्पोटेंट थे और उस टाइम में तो इंग्लैण्ड में भी वर्कर्स को इस तरह की फेसिलिटी नहीं दी जा रही थी. जमशेदजी के इस इनिशिएटिव से ना सिर्फ उनके गुडविल नेचर का पता चलता है बल्कि ये भी ज़ाहिर होता कि वो दूर की सोचते थे. और टाटा कल्चर में हमेशा इन्ही छोटी छोटी बातो का ध्यान रखा जाता है. एम्प्रेस मिल टाटा ग्रुप की फाउंडेशन बनी. ये मिल पूरे 100 सालो तक चली.

बेपटिज्म बाई फायर (Baptism by Fire)

जेआरडी फ्रांस में पला बढ़ा था. ये 1925 की बात है जब उसने टाटा स्टील में काम करना शुरू किया. उन दिनों बोम्बे हाउस नया-नया बना था. उसके फादर आरडी ने उसे जॉन पीटरसन से इंट्रोड्यूस कराया जो टाटा स्टील का मैनेजिंग डायरेक्टर था. पीटरसन जेआरडी का मेंटर बन गया.

कुछ महीनो बाद जेआरडी को जमशेदपुर भेजा गया जिसे इंडियन इंडस्ट्री का मक्का कहा जाता है. टाटा की पहले से वहां पर एक फेक्ट्री थी. जेआरडी को हर डिपार्टमेंट में एक दिन स्पेंड करना था और देखना था कि वहां पर कैसे काम होता है, जब गर्मियां आई तो आरडी बाकि फेमिली के साथ फ्रांस चले गए. वो लोग गर्मी की छुट्टियों में फ्रांस के अपने होलीडे होम जाते थे, लेकिन जेआरडी को उनके फादर ने ट्रेनिंग के लिए जमशेदपुर में रहने को बोला.

आरडी उस वक्त तक 70 साल के हो साल के चुके थे. एक उनकी सबसे बड़ी बेटी ने उन्हें डांस करने को बोला, आरडी उठकर डांस करने लगे लेकिन थोड़ी देर बाद ही थककर बैठ गए, उन्हें सीने में हल्का सा दर्द उठा और वो कोलाप्स हो गए. सीवियर हार्ट अटैक आया था, आरडी की उसी वक्त डेथ हो गयी थी, डॉक्टर को बुलाने तक मौका तक नहीं मिला. आरडी, जिन्होंने जमशेदजी के साथ टाटा बिजनेस खड़ा किया था, अब इस दुनिया से जा चुके जे आरडी के लिए ये एक शॉकिंग न्यूज़ थी. अपने 4 भाई-बहनों की रिस्पॉसेबिलिटी अब उनके कंथो पर थी.

एक और बड़ा चैलेंज उनके सामने

ये था कि आरडी की कंपनी हुब रही थी और उन पर काफी क़र्ज़ था. जेआरडी को अपनी कुछ प्रोपर्टीज बेचनी पड़ी. उन्होंने सुनीता हाउस, पुने वाला बंगला और फ्रांस का होलीडे होम बेच दिया. जेआरडी और उनके भाई-बहन ताज महल होटल में जाकर रहने लगे फेमिली बिजनेस चलाने के लिए जेआरडी ने अपनी फ्रेंच सिटीजनशिप छोड़ दी. और उन्हें इंग्लिश सीखनी पड़ी क्योंकि फ्रेंच उनकी नेटिव लेंगुएज थी.

जेआरडी विवरण
शुरुआत टाटा स्टील में 1925
स्थान जमशेदपुर
बड़े चैलेंज आरडी की कंपनी का क़र्ज़, संपत्ति बेचनी पड़ी
भाषा फ्रेंच से इंग्लिश में बदलाव

1973 में बोर्ड मेंबर्स ने जेआरडी को टाटा एम्पायर का लीडर डिक्लेयर कर दिया.

द बर्थ ऑफ़ अ मोटर कार (The Birth of a Motor Car)

रोल्स रॉयस (Rolls-Royce) इंग्लैण्ड की है, मर्सिडीज बेंज जेर्मन कार है और फोर्ड अमेरिकन, टोयोटा जापान की है और वॉल्वो स्वीडन की. उन दिनों कोई भी कार इंडिया में नहीं बनती थी. टेल्को ने ट्रक्स बनाने शुरू किये. और इसी से रतन टाटा ने टाटा सिएरा और टाटा एस्टेट दो गाड़ियाँ निकाली. लेकिन ये मॉडल्स इतने महंगे थे कि सिर्फ अमीर और फेमस लोग ही खरीद सकते थे. तब रतन टाटा को एक 100% इन्डियन फेमिली कार बनाने का ख्याल आया.

1993 में उन्होंने एक ऑटोमोबाइल पार्ट्स मेकर की मीटिंग में पब्लिकली अपना प्लान अनाउंस किया. उन्होंने लोकल मेन्यूफेक्चर्र्स को इस प्रोजेक्ट में पार्ट लेने के लिए एकरेंज किया. रतन टाटा का अगला स्टेप था टेल्को में एक इंजीनियरिंग टीम क्रियेट करना. मगर कई लोगो को डाउट था कि ये प्लान सक्सेसफुल होगा. फर्स्ट, इसके लिए बहुत ज्यादा पैसे की ज़रूरत थी और सेकंड, लोगो को लगता था कि इण्डिया में फेमिली कार की कोई मार्किट नहीं और थर्ड, क्या वाकई में कोई कार 100% इन्डियन हो सकती है.

लेकिन रतन टाटा एक विजेनरी थे, वो ऐसी कार चाहते थे जिसमे पांच लोगों के बैठने लायक जगह हो. क्योंकि आम इन्डियन फेमिली काफी ट्रेवल करती है तो सामान की भी जगह होनी चाहिए और इसके साथ ही गाडी इतनी स्ट्रोंग हो कि इन्डियन रोड्स पे सर्वाइव कर सकें. रतन टाटा काम में जुट गए, उन्होंने बेस्ट इंजीनियर्स चूज किये. 120 करोड़ रूपये उन्होंने सीएडी यानी कंप्यूटर ऐडेड डिजाईन में इन्वेस्ट किये.

डिजाईन फाइनल होने के बाद

नेस्क्ट स्टेप था प्रोटोटाइप को रीप्रोड्यूस करना. रतन ने टेल्को फेक्ट्री के अंदर 6 एकर की जगह अलोट कर दी. कई लोगों ने इस बात पे उनका मजाक भी उड़ाया कि रतन टाटा का एक पूरी तरह से इंडीजीनियस कार बनाने का सपना क्या सच में पूरा होगा? लेकिन वो रतन टाटा थे, उनके सोच भी बड़ी थी और सपने भी.

उन्हें ये समझ आ गया था कि लोकल कार की डिमांड रहेगी, और इसके लिए फैक्टरी में एक काफी बड़ी जगह और टॉप क्वालिटी की मशीनरी की ज़रूरत पड़ेगी. रतन को निसान ऑस्ट्रेलिया की एक कम्प्लीट लेकिन अनयूज्ड असेम्बली लाइन के बारे में पता चला. जापानीज इन्वेस्टमेंट के तहत मेंन्यूफेक्चरर ने रतन को ये सारी मशीनरी काफी लो प्राइस यानी कि 100 करोड़ में मिल गयी.

रतन टाटा विवरण
उद्देश्य 100% इन्डियन फेमिली कार
सीएडी निवेश 120 करोड़ रूपये
प्रोटोटाइप टेल्को फेक्ट्री में 6 एकर
असेम्बली लाइन निसान ऑस्ट्रेलिया, 100 करोड़ में

लेकिन इसे ट्रांसपोर्ट करना भी एक बड़ा चैलेंज था क्योंकि पहली बात तो उनके इंजीनियर्स को ये सारे पार्ट्स बड़े ध्यान से डिसमेंटल करने होंगे और लेबल्स के लेआउट को बड़ी ही केयरफूली स्टडी करना होगा ताकि उन्हें सिक्वेंस में असेम्बल कर सके, फिर हर एक पीस को अच्छे से पैक करके इंडिया भेजना था. असेम्बली लाइन का टोटल वेट करीब 14,800 था जिसके लिए 650 कंटेनर्स लगे थे, ये सारी मशीनरी ऑस्ट्रेलिया से इण्डिया लाने में उन्हें करीब 6 महीने लगे, फाइनली असेम्बली लाइन को टेल्को फेक्ट्री में सेट किया गया.

ये 500 मीटर लंबा था और 450 रोबोट्स इस पर काम कर रहे थे, रतन टाटा पर्सनली विजिट करने आए. उन्होंने एक पार्ट देखा जिसे असेम्बल करने के लिए एक इंजीनियर को अप एंड डाउन जाना पड़ रहा था. अगर फैक्ट्री में रोज़ की 300 कारे बनेगी तो इसका मतलब था कि उस इंजीनियर को 600 बार ऊपर नीचे जाना पड़ेगा, रतन टाटा ने एक रोबोट को उस पर्टिक्युलर पार्ट को मोडीफाई करने का आर्डर दिया. "हम नहीं चाहते कि हमारे लोग इस तरह की कमर तोड़ वाला काम करे" रतन टाटा बोले.

उन्होंने ये भी नोटिस किया कि उनके कुछ इंजीनियर्स को हर रोज़ 500 मीटर की असेम्बली लाइन के उपर से जाना पड़ता है तो उन्होंने उन लोगो के लिए ताकि आने-जाने में उनकी एनेर्जी वेस्ट ना हो. आर्डर कर दी ताकि आन-जन 1998 के कार एक्जीबिशन में रतन टाटा ने खुद कार चलाई जो पूरी तरह से इन्डियन मेक थी.

दूसरी कार ब्रांड्स

ने आ्राडिंग के लिए खूबसूरत मॉडल्स को रखा हुआ था. और उनके प्रोडक्ट्स रेटिंग प्लेटफॉर्म्स पर डिस्प्ले के लिए रखे गए थे. मगर टाटा वालो का स्टाल सबसे अलग था. मेल मॉडल्स ने पगड़ी और फिमेल मॉडल्स ने साड़ी पहनी हुई थी. कुछ स्कूली बच्चे भी हाथो में तिरंगा लिए खड़े थे. उसके बाद रतन टाटा ने बड़े प्राउड से इन्डियन कार में एंट्री की. एक आदमी ने कमेन्ट किया" वाओ! ऐसा लग रहा है जैसे कोहिनूर गाडी में बैठ के आ रहा है, रतन टाटा ने अपनी इस नयी कार का नाम रखा" इंडिका लाँच के एक महीने बाद ही इंडिका ने 14% मार्किट शेयर पे होल्ड कर लिया था.

लेकिन एक बड़ी प्रोब्लम आ रही थी, कई सारे यूनिट्स डिफेक्टिव निकल रहे थे. टाटा मोटर्स ने पूरे 500 करोड़ खर्च करके इस प्रोब्लम को फिक्स किया. उन्होंने पूरी कंट्टी के अंदर कस्टमर केयर केंप खोले जहाँ मे कस्टमर्स फ्री में डिफेक्टिव पार्टस रिपेयर करवा सकते थे, रतन टाटा ने अपने सारे कस्टमर्स को यकीन दिलाया कि उनकी गाड़ियों को ठीक कर दिया जायेगा. लेकिन इसके बावजूद बहुत से लोगों को अभी भी अपने देश की बनी हुई चीज़ इसके पार्ट डिफेक्टिव निकल रहे है. डाउट था.

इंडिका विवरण
लाँच 1998
मार्किट शेयर 14%
समस्याएँ डिफेक्टिव यूनिट्स
फिक्स 500 करोड़ खर्च, कस्टमर केयर कैंप

बोल रहे थे इंडिका देश में बनी है इसलिए आम जनता की राय से रतन टाटा को बेहद मायूसी हुई. फिर टाटा मोटर्स इंडिका का न्यू वर्जन इंडिका 2.0 यानी इंडिका V2 लेकर आया. और इस नयी कार के साथ ही रतन टाटा ने ये पूव कर दिया था कि हम लोग भी 100% इन्डियन लेकिन वर्ल्ड क्लास क्वालिटी की कार बनाने की काबिलियत रखते है. ये नया मॉडल पहले वाले से हर हाल में बैटर था.

बीबीसी ने इसे बेस्ट कार का अवार्ड दिया. इसने कई सारे मार्किट सर्वे भी जीते. इस पॉइंट पे आके टाटा मोटर्स फुल फॉर्म में चलने लगी थी. रतन टाटा लोगों को ये मैसेज देना चाहते थे कि अगर हमे खुद पे यकीन है तो नामुमकिन कुछ भी नहीं है. वो देश के यंग इंजीनियर्स को वे विशवास दिलाना चाहते थे कि हम इन्डियन भी वर्ल्ड क्लास चीज़े बना सकते है. वो सारे हिन्दुस्तानीयों को खुद पे यकीन रखना सिखाना चाहते है.

रतन टाटा से पहले किसी ने भी एक फुली इन्डियन मेड कार के बारे में नहीं सोचा था. लेकिन आज टाटा मोटर्स पूरी दुनिया में इंडिया का झंडा फहरा रहा है.

About Book

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टाटा, एक ऐसा नाम जो हिन्दुस्तान का बच्चा-बच्चा जानता है. न्यू इंडिया की नींव बनाने में टाटा ग्रुप का बहुत बड़ा हाथ है. देश की तरक्की और बेहतरी के लिए टाटा ने काफी कुछ किया है जिसे देशवासी हमेशा याद रखेंगे. टाटा बिजनेस ग्रुप सिर्फ प्रॉफिट कमाने के बारे में नहीं सोचता बल्कि सोसाइटी के हर क्लास को साथ लेकर चलने में यकीन रखता है और यही इसकी असली पहचान है.

इस बुक में आप सीखेंगे कि एक बिजनेसमेन के अंदर वो कौन सी क्वालिटीज होती है जो उसे अपना बिजनेस सस्टेन रखने में हेल्प करती है.

ये बुक किस-किसको पढ़नी चाहिए?

हर उस इन्सान को जो देश के लीडिंग बिजनेस ग्रुप टाटा और उनके लीडर्स के बारे में जानना चाहता है. जमशेदजी, जेआरडी और रतन टाटा, टाटा ग्रुप के तीन पिलर्स जिन्होंने टाटा की परंपरा को आगे बढ़ाया, इनके बारे में जानने के लिए ये बुक ज़रूर पढ़े.

इस बुक के ऑथर कौन है?

"द टाटा" बुक के ऑथर गिरीश कुबेर एक मराठी जर्नलिस्ट और राइटर है. 2010 से वो डेमोक्रेसी के मैनेजिंग डायरेक्टर है. डेमोक्रेसी में आने से पहले वो द इकोनोमिक्स टाइम्स में पोलिटिकल ब्रांच के एडिटर थे.

राइटिंग के अलावा इंटरनेशनल इकोनोमिक्स और पोलिटिक्स में उनका खास इंटरेस्ट है. उन्हें मारवारी फाउंडेशन का परबोधन ठाकरे समाज परबोधन अवार्ड भी मिल चूका है.

इंट्रोडक्शन (परिचय)

टाटा ग्रुप एक इन्डियन ग्लोबल बिजनेस है और ये बात हम प्राउड से बोल सकते हैं. लेकिन टाटा ग्रुप की इस फेनामोंनल सक्सेस का राज़ क्या है? कैसे उनका सफर शुरू हुआ? टाटा कल्चर क्या है? नाम, पॉवर, पैसा और सक्सेस-टाटा के पास सबकुछ है.

लेकिन ऐसा क्या है जो उन्हें दुनिया के बाकी बिलेनियर्स से अलग बनाता है? आपके इन्ही सब सवालों के जवाब और बाकी और भी बहुत सी बातें आप इस बुक में पढ़ेंगे.

नुस्सेरवाजी ऑफ़ नवसारी (Nusserwanji of Navsari)

टाटा ग्रुप की शुरुवात एक इंसान ने की थी जिनका नाम था नुस्सरवान. 1822 में जब उनका जन्म हुआ था तो एक एस्ट्रोलोजर ने कहा था कि एक दिन नुसरवान सारी दुनिया में राज़ करेगा. वो बहुत अमीर आदमी बनेगा लेकिन नवसारी में पैदा हुआ हर एक बच्चा अच्छी किस्मत लेकर ही पैदा होता था.

लेकिन नुसरवाजी टाटा औरो से अलग थे क्योंकि उन्होंने उस एस्ट्रोलोज़र की बात को सच कर दिखाया था. जैसा कि उन दिनों रिवाज़ था, नुसरवाजी टाटा की भी बचपन में ही शादी करा दी गई थी और 17 साल की उम्र में वो एक बेटे के बाप भी बन गए थे. बच्चे का नाम जमशेद रखा गया. वो 1839 में पैदा था.

नवसारी के ज्यादातर लोग

अपने गांव से बाहर जाना पसंद नहीं करते थे. उनके लिए उनका गाँव ही पूरी उनकी पूरी दुनिया था, लेकिन नुसरवांजी डिफरेंट थे, वो मुंबई जाकर कोई बिजनेस स्टार्ट करना चाहते थे. वो अपनी फेमिली के पहले इंसान थे जो नवसारी से बाहर गया हो.

नुसरवांजी ना तो ज्यादा पढ़े-लिखे थे और ना ही उनके पास बिजनेस के लायक पैसा था, यहाँ तक कि उन्हें बिजनेस की कोई नॉलेज भी नहीं थी.

लेकिन हाँ, उनके अंदर कुछ कर गुजरने का पैशन ज़रूर था, उनके सपने काफी बड़े थे और यही सपने उन्हें मुंबई लेकर आए. अपने साथ वो अपनी वाइफ और बेटे को भी ले गए.

मुंबई जाकर उन्होंने एक फ्रेंड की हेल्प से कॉटन का बिजनेस शुरू किया. नुसरवाजी अपने बेटे के लिए बड़े-बड़े सपने देखते थे. उनका बिजनेस अच्छा चल पड़ा था और अपने बेटे को बेस्ट एजुकेशन देने के लिए उनसे जो बन पड़ा उन्होंने सब कुछ किया, फिर कुछ ही सालों बाद जमेशदजी ने अपनी कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर ली.

नुसरवाजी चाहते थे कि उनके बेटे को इंटरनेशनल बिजनेस एक्सपोजर मिले इसलिए उन्होंने अपने बेटे को होंग-कोंग की ब्रिटिश कॉलोनी में भेजा. होंग-कोंग जाकर जमेशद जी ने तीन पार्टनर्स के मिलकर के बिजनेस किया. और इस तरह टाटा कॉटन और ओपियम के डीलर बन गए.

दादा भाई टाटा और उनका योगदान

नुसरवांजी का एक ब्रदर-इन- हांगकांग में ओपियम का डीलर था. उसका नाम था दादा भाई टाटा. दादा भाई टाटा का बेटा रतनजी दादाभाय टाटा यानि आरडी जमेशदजी से 17 साल बड़ा था. आरडी एक ओपियम डीलर था, साथ ही वो परफ्यूम्स और पल्ल्स का भी बिजनेस करता था.

वो अक्सर बिजनेस के सिलसिले में फ्रांस जाता रहता था. आरडी को बिजनेस पर्पज के लिए फ्रेंच आनी ज़रूरी थी इसलिए जमेशदजी ने उसके लिए एक फ्रेंच टीचर रखा. लेकिन आरडी को उस लडका की नाम था सुजाने. आरडी एक विडो था और उम्र में सुजाने से बड़ा भी था.

फिर जल्दी ही दोनों की शादी भी हो गयी. लेकिन आरडी को डर था कि उसकी क्न्जेर्ेटिव पारसी कम्यूनिटी सुजाने को एक्सेप्ट नहीं करेगी. इसलिए उसने सुजाने को बोला कि वो ज़ोरोएस्थेनिज्म में कन्वर्ट हो जाए.

दादा भाई टाटा विवरण
व्यवसाय ओपियम, परफ्यूम्स, पल्ल्स
बेटा रतनजी दादाभाय टाटा (आरडी)
पार्टनर सुजाने (बाद में सुनी)
बच्चे पांच, जिसमें जहाँगीर (जेआरडी) शामिल

सुजाने पारसी बनने को रेडी थी उसने कन्वर्ट कर लिया और अपना नाम बदलकर सूनी रख लिया. आरडी और सूनी के पांच बच्चे हुए. उनके दुसरे बच्चे का नाम जहाँगीर था जिसे सारी दुनिया जेआरडी के नाम से जानती है. टाटा फेमिली का बिजनेस अच्छा चल रहा था.

वो लोग चाइना और यूरोप को ओपियम और कॉटन एक्सपोर्ट करते थे और इंडिया में चाय, टेक्सटाइल और गोल्ड इम्पोर्ट करते थे. उनका बिजनेस तेज़ी से ग्रो कर रहा था, और जल्द ही जमेशदजी ने शंघाई में अपना सेकंड ऑफिस खोल लिया था.

जमशेद सुजाने को जी ने ही यूरोप में टाटा बिजनेस को योरोप में एस्टेब्लिश किया था. उस टाइम पैसेंजर एयरलाइन्स नहीं होती थी इसलिए उन्हें शिप से ट्रेवल करना पड़ता था, तब कूज शिप्स भी नहीं चलते थे इसलिए लोग अपने कार्गो के साथ ही ट्रेवल करते थे.

एक आदमी जिसने सपने बुने (A Man Who Sowed Dreams)

इंग्लैण्ड जाकर जमशेदजी ने मेन्यूफेक्चरिंग के बारे में काफी कुछ सीखा. अब वो कॉटन ट्रेडिंग के साथ-साथ मेन्यूफेक्चरिंग बिजनेस भी करना चाहते थे. 1873 में जमेशदजी ने अपनी खुद की स्पिनिंग और वीविंग मिल खोली.

उस जमाने में ज्यादातर बिजनेसमेन बोम्बे या अहमदाबाद में मिल्स खोलते थे लेकिन जमशेदजी ने नागपुर सिटी चूज़ की जो कॉटन फार्म्स के नज़दीक थी. जमशेदजी ने इंग्लैण्ड से बेस्ट क्वालिटी की मशीनरी आर्डर की और मशीनरी ऑपरेशन के एक्सपर्ट भी हायर किये. अपनी इस नए बिजनेस का नाम उन्होंने एम्प्रेस मिल्स रखा था.

लेकिन मिल चलाने में सबसे बड़ा चेलेंज था वर्क कल्चर, नागपुर के लोग आरामपंसद ज्यादा थे जबकि बॉम्बे में लोग छुट्टी वाले दिन भी काम करते थे. लेक देने के बजाये जगधगपुर में रोज़ सिर्फ 80% लोग ही काम प आते थे. लोग छोटी-छोटी बातो पे छुट्टी मार लेते थे.

ऐसे में एम्प्लोईज को पनिशमेंट ने एक पोजिटिव सोल्यूशन निकाला. उन्होंने एग्प्लोईज के लिए प्रोविडेंट फंड स्कीम या कहे कि पेंशन प्लान निकाला ताकि रटायरमेंट के बाद भी लोगों की जिंदगी आराम से चल सके, जमशेदजी ने एक इंश्योरेंस स्कीम भी शुरू की.

एम्प्रेस मिल्स विवरण
शुरूआत 1873
स्थान नागपुर
विशेषताएँ स्पिनिंग और वीविंग मिल
चुनौतियाँ वर्क कल्चर, एम्प्लोई पनिशमेंट, प्रोविडेंट फंड स्कीम

अगर कोई एम्लोई काम के दौरान घायल हो जाए या उसकी डेथ हो जाए तो उसे और उसकी फेमिली को मेडिकल एक्सपेंस मिल सके. वो अपने वर्कर्स के लिए स्पेशल इवेंट्स जैसे स्पोर्टस डे और फेमिली के भी ऑर्गेनाइज़ कराते थे जहाँ पर गेम्स के चिनर को ईनाम के तौर पर कैश, रिस्टवाचेस, या गोल्ड चेन्स मिलती थी.

ये जमशेदजी के इनोवेटिव आईडियाज का ही कमाल था जो एम्प्रेस मिल के वर्कर्स अपने काम को लेकर और ज्यादा मोटीवेटेड फील करने लगे थे. और उनके वर्क एथिक्स में भी काफी चेंजेस आये थे.

इस तरह के पेंशन्स प्लान और इंश्योरेंस बहुत इम्पोटेंट थे और उस टाइम में तो इंग्लैण्ड में भी वर्कर्स को इस तरह की फेसिलिटी नहीं दी जा रही थी. जमशेदजी के इस इनिशिएटिव से ना सिर्फ उनके गुडविल नेचर का पता चलता है बल्कि ये भी ज़ाहिर होता कि वो दूर की सोचते थे.

और टाटा कल्चर में हमेशा इन्ही छोटी छोटी बातो का ध्यान रखा जाता है. एम्प्रेस मिल टाटा ग्रुप की फाउंडेशन बनी. ये मिल पूरे 100 सालो तक चली.

एक सक्सेसफुल बिजनेसमैन के तौर पर जमेशदजी की हमेशा तारीफ़ होती रही. लेकिन वो कभी भी सारा क्रेडिट खुद नहीं लेते थे बल्कि अपने एम्प्लोईज के साथ शेयर करते थे.

बेपटिज्म बाई फायर (Baptism by Fire)

जेआरडी फ्रांस में पला बढ़ा था. ये 1925 की बात है जब उसने टाटा स्टील में काम करना शुरू किया. उन दिनों बोम्बे हाउस नया-नया बना था. उसके फादर आरडी ने उसे जॉन पीटरसन से इंट्रोड्यूस कराया जो टाटा स्टील का मैनेजिंग डायरेक्टर था. पीटरसन जेआरडी का मेंटर बन गया.

कुछ महीनो बाद जेआरडी को जमशेदपुर भेजा गया जिसे इंडियन इंडस्ट्री का मक्का कहा जाता है. टाटा की पहले से वहां पर एक फेक्ट्री थी. जेआरडी को हर डिपार्टमेंट में एक दिन स्पेंड करना था और देखना था कि वहां पर कैसे काम होता है, जब गर्मियां आई तो आरडी बाकि फेमिली के साथ फ्रांस चले गए. वो लोग गर्मी की छुट्टियों में फ्रांस के अपने होलीडे होम जाते थे, लेकिन जेआरडी को उनके फादर ने ट्रेनिंग के लिए जमशेदपुर में रहने को बोला.

आरडी उस वक्त तक 70 साल के हो साल के चुके थे. एक उनकी सबसे बड़ी बेटी ने उन्हें डांस करने को बोला, आरडी उठकर डांस करने लगे लेकिन थोड़ी देर बाद ही थककर बैठ गए, उन्हें सीने में हल्का सा दर्द उठा और वो कोलाप्स हो गए.

सीवियर हार्ट अटैक आया था, आरडी की उसी वक्त डेथ हो गयी थी, डॉक्टर को बुलाने तक मौका तक नहीं मिला. आरडी, जिन्होंने जमशेदजी के साथ टाटा बिजनेस खड़ा किया था, अब इस दुनिया से जा चुके जे आरडी के लिए ये एक शॉकिंग न्यूज़ थी. अपने 4 भाई-बहनों की रिस्पॉसेबिलिटी अब उनके कंथो पर थी.

एक और बड़ा चैलेंज उनके सामने

ये था कि आरडी की कंपनी हुब रही थी और उन पर काफी क़र्ज़ था. जेआरडी को अपनी कुछ प्रोपर्टीज बेचनी पड़ी. उन्होंने सुनीता हाउस, पुने वाला बंगला और फ्रांस का होलीडे होम बेच दिया.

जेआरडी और उनके भाई-बहन ताज महल होटल में जाकर रहने लगे फेमिली बिजनेस चलाने के लिए जेआरडी ने अपनी फ्रेंच सिटीजनशिप छोड़ दी. और उन्हें इंग्लिश सीखनी पड़ी क्योंकि फ्रेंच उनकी नेटिव लेंगुएज थी.

जेआरडी विवरण
शुरुआत टाटा स्टील में 1925
स्थान जमशेदपुर
बड़े चैलेंज आरडी की कंपनी का क़र्ज़, संपत्ति बेचनी पड़ी
भाषा फ्रेंच से इंग्लिश में बदलाव

1973 में बोर्ड मेंबर्स ने जेआरडी को टाटा एम्पायर का लीडर डिक्लेयर कर दिया.

द बर्थ ऑफ़ अ मोटर कार (The Birth of a Motor Car)

रोल्स रॉयस (Rolls-Royce) इंग्लैण्ड की है, मर्सिडीज बेंज जेर्मन कार है और फोर्ड अमेरिकन, टोयोटा जापान की है और वॉल्वो स्वीडन की. उन दिनों कोई भी कार इंडिया में नहीं बनती थी. टेल्को ने ट्रक्स बनाने शुरू किये.

और इसी से रतन टाटा ने टाटा सिएरा और टाटा एस्टेट दो गाड़ियाँ निकाली. लेकिन ये मॉडल्स इतने महंगे थे कि सिर्फ अमीर और फेमस लोग ही खरीद सकते थे. तब रतन टाटा को एक 100% इन्डियन फेमिली कार बनाने का ख्याल आया.

1993 में उन्होंने एक ऑटोमोबाइल पार्ट्स मेकर की मीटिंग में पब्लिकली अपना प्लान अनाउंस किया. उन्होंने लोकल मेन्यूफेक्चर्र्स को इस प्रोजेक्ट में पार्ट लेने के लिए एकरेंज किया. रतन टाटा का अगला स्टेप था टेल्को में एक इंजीनियरिंग टीम क्रियेट करना. मगर कई लोगो को डाउट था कि ये प्लान सक्सेसफुल होगा.

फर्स्ट, इसके लिए बहुत ज्यादा पैसे की ज़रूरत थी और सेकंड, लोगो को लगता था कि इण्डिया में फेमिली कार की कोई मार्किट नहीं और थर्ड, क्या वाकई में कोई कार 100% इन्डियन हो सकती है.

लेकिन रतन टाटा एक विजेनरी थे, वो ऐसी कार चाहते थे जिसमे पांच लोगों के बैठने लायक जगह हो. क्योंकि आम इन्डियन फेमिली काफी ट्रेवल करती है तो सामान की भी जगह होनी चाहिए और इसके साथ ही गाडी इतनी स्ट्रोंग हो कि इन्डियन रोड्स पे सर्वाइव कर सकें.

रतन टाटा काम में जुट गए, उन्होंने बेस्ट इंजीनियर्स चूज किये. 120 करोड़ रूपये उन्होंने सीएडी यानी कंप्यूटर ऐडेड डिजाईन में इन्वेस्ट किये.

डिजाईन फाइनल होने के बाद

नेक्स्ट स्टेप था प्रोटोटाइप को रीप्रोड्यूस करना. रतन ने टेल्को फेक्ट्री के अंदर 6 एकर की जगह अलोट कर दी. कई लोगों ने इस बात पे उनका मजाक भी उड़ाया कि रतन टाटा का एक पूरी तरह से इंडीजीनियस कार बनाने का सपना क्या सच में पूरा होगा?

लेकिन वो रतन टाटा थे, उनके सोच भी बड़ी थी और सपने भी. उन्हें ये समझ आ गया था कि लोकल कार की डिमांड रहेगी, और इसके लिए फैक्टरी में एक काफी बड़ी जगह और टॉप क्वालिटी की मशीनरी की ज़रूरत पड़ेगी.

रतन को निसान ऑस्ट्रेलिया की एक कम्प्लीट लेकिन अनयूज्ड असेम्बली लाइन के बारे में पता चला. जापानीज इन्वेस्टमेंट के तहत मेंन्यूफेक्चरर ने रतन को ये सारी मशीनरी काफी लो प्राइस यानी कि 100 करोड़ में मिल गयी.

रतन टाटा विवरण
उद्देश्य 100% इन्डियन फेमिली कार
सीएडी निवेश 120 करोड़ रूपये
प्रोटोटाइप टेल्को फेक्ट्री में 6 एकर
असेम्बली लाइन निसान ऑस्ट्रेलिया, 100 करोड़ में

लेकिन इसे ट्रांसपोर्ट करना भी एक बड़ा चैलेंज था क्योंकि पहली बात तो उनके इंजीनियर्स को ये सारे पार्ट्स बड़े ध्यान से डिसमेंटल करने होंगे और लेबल्स के लेआउट को बड़ी ही केयरफूली स्टडी करना होगा ताकि उन्हें सिक्वेंस में असेम्बल कर सके, फिर हर एक पीस को अच्छे से पैक करके इंडिया भेजना था.

असेम्बली लाइन का टोटल वेट करीब 14,800 था जिसके लिए 650 कंटेनर्स लगे थे, ये सारी मशीनरी ऑस्ट्रेलिया से इण्डिया लाने में उन्हें करीब 6 महीने लगे, फाइनली असेम्बली लाइन को टेल्को फेक्ट्री में सेट किया गया.

ये 500 मीटर लंबा था और 450 रोबोट्स इस पर काम कर रहे थे, रतन टाटा पर्सनली विजिट करने आए. उन्होंने एक पार्ट देखा जिसे असेम्बल करने के लिए एक इंजीनियर को अप एंड डाउन जाना पड़ रहा था.

अगर फैक्ट्री में रोज़ की 300 कारे बनेगी तो इसका मतलब था कि उस इंजीनियर को 600 बार ऊपर नीचे जाना पड़ेगा, रतन टाटा ने एक रोबोट को उस पर्टिक्युलर पार्ट को मोडीफाई करने का आर्डर दिया. "हम नहीं चाहते कि हमारे लोग इस तरह की कमर तोड़ वाला काम करे" रतन टाटा बोले.

उन्होंने ये भी नोटिस किया कि उनके कुछ इंजीनियर्स को हर रोज़ 500 मीटर की असेम्बली लाइन के उपर से जाना पड़ता है तो उन्होंने उन लोगो के लिए ताकि आने-जाने में उनकी एनेर्जी वेस्ट ना हो. आर्डर कर दी ताकि आन-जन 1998 के कार एक्जीबिशन में रतन टाटा ने खुद कार चलाई जो पूरी तरह से इन्डियन मेक थी.

दूसरी कार ब्रांड्स

ने आ्राडिंग के लिए खूबसूरत मॉडल्स को रखा हुआ था. और उनके प्रोडक्ट्स रेटिंग प्लेटफॉर्म्स पर डिस्प्ले के लिए रखे गए थे. मगर टाटा वालो का स्टाल सबसे अलग था. मेल मॉडल्स ने पगड़ी और फिमेल मॉडल्स ने साड़ी पहनी हुई थी. कुछ स्कूली बच्चे भी हाथो में तिरंगा लिए खड़े थे.

उसके बाद रतन टाटा ने बड़े प्राउड से इन्डियन कार में एंट्री की. एक आदमी ने कमेन्ट किया" वाओ! ऐसा लग रहा है जैसे कोहिनूर गाडी में बैठ के आ रहा है, रतन टाटा ने अपनी इस नयी कार का नाम रखा" इंडिका लाँच के एक महीने बाद ही इंडिका ने 14% मार्किट शेयर पे होल्ड कर लिया था.

लेकिन एक बड़ी प्रोब्लम आ रही थी, कई सारे यूनिट्स डिफेक्टिव निकल रहे थे. टाटा मोटर्स ने पूरे 500 करोड़ खर्च करके इस प्रोब्लम को फिक्स किया. उन्होंने पूरी कंट्टी के अंदर कस्टमर केयर केंप खोले जहाँ मे कस्टमर्स फ्री में डिफेक्टिव पार्टस रिपेयर करवा सकते थे, रतन टाटा ने अपने सारे कस्टमर्स को यकीन दिलाया कि उनकी गाड़ियों को ठीक कर दिया जायेगा.

लेकिन इसके बावजूद बहुत से लोगों को अभी भी अपने देश की बनी हुई चीज़ इसके पार्ट डिफेक्टिव निकल रहे है. डाउट था.

इंडिका विवरण
लाँच 1998
मार्किट शेयर 14%
समस्याएँ डिफेक्टिव यूनिट्स
फिक्स 500 करोड़ खर्च, कस्टमर केयर कैंप

बोल रहे थे इंडिका देश में बनी है इसलिए आम जनता की राय से रतन टाटा को बेहद मायूसी हुई. फिर टाटा मोटर्स इंडिका का न्यू वर्जन इंडिका 2.0 यानी इंडिका V2 लेकर आया. और इस नयी कार के साथ ही रतन टाटा ने ये पूव कर दिया था कि हम लोग भी 100% इन्डियन लेकिन वर्ल्ड क्लास क्वालिटी की कार बनाने की काबिलियत रखते है. ये नया मॉडल पहले वाले से हर हाल में बैटर था.

बीबीसी ने इसे बेस्ट कार का अवार्ड दिया. इसने कई सारे मार्किट सर्वे भी जीते. इस पॉइंट पे आके टाटा मोटर्स फुल फॉर्म में चलने लगी थी. रतन टाटा लोगों को ये मैसेज देना चाहते थे कि अगर हमे खुद पे यकीन है तो नामुमकिन कुछ भी नहीं है.

वो देश के यंग इंजीनियर्स को वे विशवास दिलाना चाहते थे कि हम इन्डियन भी वर्ल्ड क्लास चीज़े बना सकते है. वो सारे हिन्दुस्तानीयों को खुद पे यकीन रखना सिखाना चाहते है.

रतन टाटा से पहले किसी ने भी एक फुली इन्डियन मेड कार के बारे में नहीं सोचा था. लेकिन आज टाटा मोटर्स पूरी दुनिया में इंडिया का झंडा फहरा रहा है.

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