About Book
लोग कहते हैं अंग्रेजी पढ़ना और भाड़ झोंकना एक बराबर है। अंग्रेजी पढ़ने वालों की हालत खराब है। अच्छे-अच्छे एम.ए. और बी.ए. मारे-मारे फिरते हैं, कोई उन्हें पूछता तक नहीं। मैं इन बातों के खिलाफ़ हूं। अंग्रेजी पढ़- लिखकर मैं डॉक्टर बना हूं। अंग्रेजी शिक्षा का विरोध करने वाले ज़रा आंख खोलकर मेरी हालत देखें।
सोमवार का दिन था। सवा नौ बजे मेरे दोस्त बाबू सन्तोष कुमार बी.एस-सी. एक नौजवान रोगी को साथ लिये मेरे दवाखाने में आये। उस रोगी की उम्र अठारह-उन्नीस से ज़्यादा न थी। गेहुआं रंग, बड़ी-बड़ी आंखें, हट्टा-कट्टा शरीर, कपड़े स्वदेशी, लेकिन मैले थे। सिर के बाल लम्बे और रूखे। उस लड़के को देखकर मुझे बहुत ख़ुशी हुई।
सन्तोष कुमार ने नौजवान से मिलाते हुए कहा- “ये जिला नदिया के रहने वाले हैं, नाम ललित कृष्ण बोस है, लेकिन ललित के नाम से जाने जाते हैं। एम.ए. में पढ़ते थे; पर किसी कारण से कॉलेज छोड़ दिया।”
मैंने मुस्कराते हुए पूछा “आजकल आप क्या करते हैं?” सन्तोष कुमार ने जवाब दिया- “दो महीने पहले यह किरण प्रेस में प्रूफरीडर के तौर पर काम कर रहा था लेकिन इस काम में मन न लगने के कारण नौकरी छोड़ दी। परसों से बुखार है, कोई अच्छी दवा दीजिए।”
आज से पहले भी मैंने इस लड़के को कहीं देखा है, पर कहां
देखा है और कब, यह याद नहीं। बीमारी की छान-बीन के बाद मैंने ललित से कहा- “लगता है, आप ज़रुरत से ज़्यादा मेहनत करते हैं, खैर, कोई बात नहीं दो दिन में आराम हो जायेगा।”
ललित बहुत मीठा बोलता था। मैं उसकी बातों पर लट्टू हो गया। मैंने कहा- “हर तीन घण्टे के अन्तर से दवा पीजियेगा। दूध और साबूदाने के सिवाय कोई और चीज खाने की जरुरत नहीं। कल फिर आने का कष्ट कीजियेगा।”
ललित हंसने लगा। जाते समय मैंने उससे कल ज़रूर आने के लिए कहा, पर ललित ने शाम को ही आने का वादा किया। ललित हर रोज़ सुबह-शाम मेरे यहां आने लगा। मैं उसके व्यवहार से बहुत खुश था। हमारे बीच घंटों इधर-उधर की बातें होती थी। ललित सच में ललित था, कुशल और अच्छा। वह इंसान नहीं देवता था।
ललित अब मेरे घर पर ही रहने लगा। मेरा लड़का उमाशंकर आठवीं क्लास में पढ़ता था। ललित ने कहा- “मैं इसे बंगला सिखाऊंगा, बंगला बड़ी मीठी भाषा है।” मैं ख़ुद भी यही चाहता था। उमाशंकर ने बंगला पढ़ना शुरू कर दिया, ललित आज से उमाशंकर का टीचर बन गया।
कलकत्ता जैसे बड़े शहर में यूं तो हर त्यौहार पर बड़ी रौनक होती है लेकिन दुर्गा-पूजा के मौके पर कमाल की धूमधाम
और चहल-पहल दिखाई देती है। दशहरा के दिन अक्सर रास्तों पर लोगों का सैलाब सा होता है। बड़े-बूढों में भी उस दिन एक ख़ास खुशी की भावना होती है, लड़कों और नौजवानों की तो क्या कहने। हर आदमी अपनी धुन में मस्त दिखाई देता है। जिस समय दुर्गा की सवारी सामने से आती है तो ‘काली माई की जय’ की आवाज से आकाश गूंज उठता है, दिल में एक अनोखी उमंग पैदा हो जाती है। उस दिन दुर्गा पूजा थी। हम सब भी पूजा देखने गये थे, ललित भी हमारे साथ था। पहले की तुलना में ललित में आज ज़्यादा जोश था। हर जगह पर वह देवी की मूर्ति को प्रणाम करता, कभी उसकी आँखें लाल हो जाती और कभी उनमें आंसू उमड़ आते। मैंने देखा, कभी वह खुशी से नाचने-कूदने लगता और कभी बिलकुल चुपचाप हक्का-बक्का होकर इधर-उधर देखता। मैंने बहुत कोशिश की ; लेकिन उसकी इन हरकतों को समझ न सका। उससे पूछने की हिम्मत भी न हुई।
हमारे पीछे एक गरीब बुढ़िया आठ-नौ साल के एक बच्चे को साथ लिये खम्भे की आड़ में खड़ी थी। शायद बहुत भीड़ होने के कारण वो आगे जाने की हिम्मत नहीं कर पा रही थी । वह भिखारिन थी। गरीबी के कारण उसका पेट पीठ से चिपक गया था। उसने अपना दाहिना हाथ भीख के लिए फ़ैला रखा था। बच्चा विनती करते हुए कह रहा था- “बाबा,
भूखे की सुध लेना, भगवान् तुम्हारा भला करेगा।” लेकिन संसार में गरीबों की कौन सुनता है? गरीब बुढ़िया की ओर किसी ने आंख उठाकर भी न देखा, हर आदमी अपनी ख़ुशी में मगन था। बच्चे ने बुढ़िया से कहा- “घंटों बीत गए लेकिन अब तक दो पैसे मिले हैं, सोचता था आज दुर्गा-पूजा है कुछ ज़्यादा ही मिल जायेगा; पर दुःख है कि चिल्लाते-चिल्लाते गला बैठ गया; कोई सुनता ही नहीं। जी में आता है यहीं जान दू।” यह कहकर बच्चा रोने लगा।
बुढ़िया की आंखों में आंसू झलकने लगे। उसने कहा, “बेटा! अपना भाग्य ही खोटा है, कल सत्तू खाने के लिए छ: पैसे मिल गये थे आज उसका भी सहारा दिखाई नहीं देता। आज भूखे पेट ही रहना होगा। हाय! यह हमारे पाप का फल है।” बुढ़िया ने एक ठंडी सांस ली और अपने फटे मैले आंचल से अपनी और बच्चे की आंखें पोंछीं। बच्चा फिर उसी विनती से कहने लगा- ‘बाबा, भूखे की सुध लेना, भगवान् तुम्हारा भला करेगा।’ हज़ारों लोग जमा थे; पर इस विनती की पुकार
कोई सुनने वाला न था। ललित उस समय बुढ़िया की ओर देख रहा था। उसकी दुखदायी दशा देखकर उसका दिल बेचैन हो गया । उसने अपनी जेब टटोली, उसमें एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी । उसने अपनी दूसरी जेब में हाथ डाला, कुछ ज़रूरी कागजों के बीच में एक अठन्नी निकल आई। ललित की निराशा खुशी में
बदल गई, उसका चेहरा खिल गया। उसने अठन्नी बुढ़िया के हाथ पर रख दिया ।
जिस तरह दस-पांच रुपये लगाने वाले को लॉटरी में दस-बीस हजार रुपये मिल जाने पर ख़ुशी होती है, जिस तरह एक औरत नए गहने पहनकर ख़ुश होती है, जिस तरह सूखे हुए खेत में बारिश हो जाने से किसान खुशी से फूला नहीं समाता, जिस तरह कोई नया कवि अपनी कविता को किसी किताब में छपा हुआ देखकर खुश होता है, उससे कहीं ज्यादा उस गरीब बुढ़िया को अठन्नी पाकर ख़ुशी हुई थी । ख़ुशी के मारे उसकी आंखों में आंसू भर आए, वह एक टक ललित की ओर देखने लगी। उसका मग्न मन ललित को हज़ारों
आशीर्वाद दे रहा था।
यह देखकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। मैंने कई बार उस बुढ़िया को देखा था, उससे मुझे हमदर्दी भी थी लेकिन कभी यह हिम्मत न हुई कि उसकी मदद करूं। कभी दिल में आता कि उसे कुछ देना चाहिए, कभी यह कहता कि इसमें क्या रखा है, संसार में लाखों गरीब हैं किस-किसकी मदद करूंगा? ललित, जिसे कभी-कभी ख़ुद भूखे तक रहना पड़ता, जिसे मैंने कभी एक पैसे का पान चबाते न देखा था और जो मेरी नज़र में बहुत कंजूस था, उसका यह दान देखकर मेरे आश्चर्य
की सीमा न रही।
सपने में उस दिन मुझे ललित की कई खूबियाँ दिखाई दीं।मालूम नहीं वो सच था या झूठ , लेकिन ज्योतिषी के हिसाब से उन्हें सच ही समझना चाहिए। इसका कारण यह है कि मुझे रात ढाई बजे नींद आई और वह सपना मैंने रात के अंतिम पहर में देखा था।
लोग कहते हैं अंग्रेजी पढ़ना और भाड़ झोकना एक बराबर है। अंग्रेजी पढ़ने वालों की हालत खराब है। अच्छे-अच्छे एम.ए. और बी.ए. मारे-मारे फिरते हैं, कोई उन्हें पूछता तक नहीं। मैं इन बातों के खिलाफ़ हूँ। अंग्रेजी पढ़-लिखकर में डॉक्टर बना हूं। अंग्रेजी शिक्षा का विरोध करने वाले ज़रा आख
खोलकर मेरी हालत देखें।
सोमवार का दिन था। सवा नौ बजे मेरे दोस्त बाबू सन्तोष कुमार बी.एस-सी. एक नौजवान रोगी को साथ लिये मेरे दवाखाने में आये। उस रोगी की उम्र अठारह-उन्नीस ভ्यादा न थी। गेहुओं रंग, बड़ी-बड़ी आंखे, हट्टा-कट्टा शरीर, कपडे स्वदेशी, लेकिन मैले थे। सिर के बाल लम्बे और रूखे। उस लड़के
को देखकर मुझे बहुत खुशी हुई। सन्तोष कुमार ने नौजवान से
मे थे पर मिलाते हुए कहा- “ये जिला नदिया के रहने वाले हैं, नाम ललित कृष्ण बोस है, लेकिन ललित के नाम से जाने जाते हैं। एम ए. में पढ़ते थे: पर किसी कारण से कॉलेज छोड़ दिया।”
मन मुस्कराते हुए पूछा- “आजकल आप क्या करते हैं?”
सन्तोष कुमार नौकरी छोड़ दी। परसों से बुखार है, कोई अच्छी दवा दीज़िए।”
ने जवाब दिया- “दो महीने पहले यह किरण प्रेस में प्रूफरीडर के तौर पर काम कर रहा था लेकिन इस काम में मन न लगने के कारण
आज से पहले भी मैंने इस लड़के को कहीं देखा है, पर कहां देखा है और कब, यह याद नहीं। बीमारी की छान-बीन के बाद मैंने ललित से कहा- “लगता
है, आप ज़रुरत से ज़्यादा मेहनत हैं, खैर, कोई बात न ललित बहुत मीठा न करते खर, नहीं दो दिन में आराम हो जायेगा।” बोलता था। मैं उसकी बातों पर लट्टू हो गया। मैंने कहा- “हर तीन घण्टे अन्तर से दवा पीजियेगा। दूध और साबूदाने के सिवाय
कोई और चीज खाने की ज़रुरत नहीं। कल फिर आने का कष्ट कीजियेगा।” ललित हंसने लगा। जाते समय मैंने उससे कल ज़रूर आने के लिए कहा, पर ललित ने शाम को ही आने का वादा किया। ललित हर रोज़ सुबह-शाम मेरे यहां आने लगा। मैं उसके व्यवहार से बहुत खुश था। हमारे बीच घंटों इधर-उधर की बातें होती थी। ललित सच में ललित
था, कुशल और अच्छा। वह इंसान नहीं देवता था।
ललित अब मेरे घर पर ही रहने लगा। मेरा लड़का उमाशंकर आठवीं क्लास में पढ़ता था। ललित ने कहा- “में इसे बंगला सिखाऊंगा, बंगला बड़ी मीठी भाषा है।” में खुद भी यहीं चाहता था। उमाशंकर ने बंगला पढ़ना शुरू कर दिया, ललित आज उमाशंकर का टीचर बन गया।
कलकत्ता जैसे बड़े शहर में यूं तो हर त्यौहार पर बड़ी रौनक होती है लेकिन दुर्गा-पूजा के मौके पर कमाल की धूमधाम और चहल-पहल दिखाई देती है। दशहरा के दिन अक्सर रास्तों पर लोगों का सैलाब सा होता है। बड़े-बूढों में भी उस दिन एक खास खुशी की भावना होती है, लड़कों और नौजवानों
की तो क्या कहने। हर आदमी अपनी धुन में मस्त दिखाई देता है। जिस समय दुर्गा की सवारी सामने से आती है तो काली माई की जय’ की आवाज से
आकाश गूंज उठता है, दिल में एक अनोखी उमंग पैदा हो जाती है। उस दिन दुर्गा पुजा थी। हम सब भी पुजा देखने गये थे, ललित भी हमारे साथ था। पहले की तुलना में ललित में आज ज़्यादा जोश था। हर जगह पर
वह देवी की मूर्ति को प्रणाम करता, कभी उसकी आँखें लाल हो जाती और कभी उनमें आंसू उमड़ आते। मैंने देखा, कभी वह खुशी से नाचने-कूदने लगता और कभी बिलकुल चुपचाप हक्का-बक्का होकर इधर-उधर देखता। मैंने बहुत कोशिश की लेकिन उसकी इन हरकतों को समझ न सका।
उससे पूछने की हिम्मत भी न हुई।
हमारे पीछे एक गरीब बुढिया आठ-नौ साल के एक बच्चे को साथ लिये खम्भे की आड़ में खड़ी थी। शायद बहुत भीड़ होने के कारण वो आगे जाने की हिम्मत नहीं कर पा रही थी। वह भिखारिन थी। गरीबी के कारण उसका पेट पीठ से चिपक गया था। उसने अपना दाहिना हाथ भीख के लिए फैला रखा था। बच्चा विनती करते हुए कह रहा था- “बाबा, भूखे की सुध लेना, भगवान् तुम्हारा भला करेगा।” लेकिन संसार में गरीबों की कौन सुनता है? गरीब बुढ़िया की ओर किसी ने आंख उठाकर भी न देखा, हर आदमी अपनी खुशी में मगन था। बच्चे ने बुढ़िया से कहा- “घंटों बीत गए लेकिन अब तक दो पैसे
मिले हैं, सोचता था आज दुर्गा-पूजा है कुछ ज्यादा ही मिल जायेगा; पर दुःख है कि चिल्लाते-चिल्लाते गला बैठ गया; कोई सुनता ही नहीं। जी में आता बुढ़िया की आंखों में आंसू झलकने लगे। उसने कहा, “बेटा! अपना भाग्य ही खोटा है, कल सत्तू खाने के लिए छ: पैसे मिल गये थे आज उसका भी
यहीं जान दे दें।” यह कहकर बच्चा रोने लगा।
सहारा दिखाई नहीं देता। आज भूखे पेट ही रहना होगा। हाय! यह हमारे पाप का फल है।”
बुढ़िया ने एक ठंडी सांस ली और अपने फटे मैले आंचल से अपनी और बच्चे की आंखें पोंछीं। बच्चा फिर उसी विनती से कहने लगा- ‘बाबा, भूखे की सुध लेना, भगवान् तुम्हारा भला करेगा। हजारों लोग जमा थे; पर इस विनती की पुकार कोई सुनने वाला न था। ललित उस समय बुढ़िया की ओर देख रहा था। उसकी दुखदायी दशा देखकर उसका दिल बेचैन हो गया उसने अपनी जेब टटोली, उसमें एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी। उसने अपनी दूसरी जेब में हाथ डाला, कुछ ज़रूरी कागजों के बीच में एक अठन्नी निकल आई ललित की निराशा खुशी में बदल
गई, उसका चेहरा खिल गया। उसने अपनी बुढ़िया के हाथ पर रख दिया । जिस तरह दस-पांच रुपये लगाने वाले को लॉटरी में दस-बीस हजार रुपये मिल जाने पर खुशी होती है, जिस तरह एक औरत नए गहने पहनकर खुश
होती है, जिस तरह सूखे हुए खेत में बारिश हो जाने से किसान खुशी से फूला नहीं समाता, जिस तरह कोई नया कवि अपनी कविता को किसी किताब में छपा हुआ देखकर खुश होता है, उससे कहीं ज़्यादा उस गरीब बुढ़िया को अठन्नी पाकर खुशी हुई थी खुशी के मारे उसकी आंखों में आंसू भर आए, वह एक टक ललित की ओर देखने लगी। उसका मग्न मन ललित को हज़ारों आशीर्वाद दे रहा था।
यह देखकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। मैंने कई बार उस बुढ़िया को देखा था, उससे मुझे हमदर्दी भी थी लेकिन कभी यह हिम्मत न हुई कि उसकी मदद
करूं। कभी दिल में आता कि उसे कुछ देना चाहिए, कभी यह कहता कि इसमें क्या रखा है, संसार में लाखों गरीब हैं किस-किसकी मदद करूगा?
ललित, जिसे कभी-कभी खुद भूखे तक रहना पड़ता, जिसे मैंने कभी एक पैसे का पान चबाते न देखा था और जो मेरी नज़र में बहुत कंजूस था, उसका
यह दान देखकर मेरे आश्चर्य की सीमा न रही। सपने में उस दिन मुझे ललित की कई खूबियाँ दिखाई दीं। मालूम नहीं वो सच था या झूठ, लेकिन ज्योतिषी के हिसाब से उन्हें सच ही समझना चाहिए। इसका कारण यह है कि मुझे रात ढाई बजे नींद आई और वह सपना मैंने रात के अंतिम पहर में देखा था।
ललित की मदद से उमाशंकर में आश्चर्यजनक बदलाव हुआ। कहां तो वह बिना गाड़ी के घर से बाहर न निकलता था पर अब यह हालत थी कि ललित के साथ हवा खाने के लिए हर रोज़ कोसों पैदल निकल जाता, सिनेमा देखने का भी चस्का खत्म हो गया, अपनी ऐशो आराम और दिखावे की लत को
भी उसने छोड़ दिया । अंग्रेजी शिक्षा से अब उसे घृणा हो गई थी।
रविवार के दिन मेरे यहां कुछ दोस्तों की गार्डन-पार्टी बड़ा मज़ा आया। मैं अपने दोस्तों की आव भगत में लगा हुआ था। उधर उपेन्द्र कुमार, गोपाल, उमाशंकर और ललित में चुपके-चुपके बातें हो रही थीं। ये लोग क्या बातें कर रहे थे यह बताना मुश्किल है, क्योंकि पहले तो मैं पार्टी की झंझटों में
पड़ते तो म उनकी और ज़्यादा ध्यान उलझा
गोपाल भी हसी आ जाती। 1 बाबू को मैं काफी
न था, दूसरे दे मुझ से दर थे और धीरे-धीरे बातें कर रहे थे, बीच-बीच में जब वो लोग खिल-खिलाकर हंस
|में काफी समय से जानता हूं, रिश्ते में वो सन्तोष कुमार के बहनोई लगते हैं। अव्वल दर्जे के शौकीन और प्रेमी स्वभाव के हैं। आज देखा
तो कलाई रिस्ट वॉच से खाली थी, रेशम की शरट्ट में से सोने के बटन गायब थे, होंठों की लाली गायब, बाल भी फेशन वाले न थे। मैंने सन्तोष कुमार से धीरे से कहा- “आज तो भाई साहब का कुछ और ही रंग हैं, वह पहली-सी चटक-मटक दिखाई नहीं देती, क्या बात है? कुछ समझ नहीं आता।” सन्तोष कुमार ने मुस्कराते हुए जवाब दिया- “आजकल इन पर स्वदेशी का भूत सवार है। कई महीने से वो इसी रंग में रंगे हुए हैं, क्या आपने पहली बार
इन्हें इस देश में देखा है?”
मैंने जवाब दिया- हां! और इसीलिए मुझे आश्चर्य भी हुआ।”
सन्तोष कुमार ने किसी सीमा तक चिढ़ते हुए कहा- “हमें क्या मतलब? जो जिसके मन में आए करे, बार-बार समझाने पर भी अगर कोई न सुने तो क्या किया जाए। ज्यादा कहने-सुनने से अपनी इज्ज़त पर आच आती है। जैसी करनी वैसी भरनी मशहूर है। जब जेल में चक्की पीसनी पड़ेगी तो आटे-दाल
का भाव मालूम हो जायेगा।” मैंने कहा- “सन्तोष कुमार तुम बिल्कुल
सच कहते हो, जमाने की हवा कुछ बदली हुई दिखाई देती है। ललित को भी कुछ स्वदेश की सनक है। हालांकि
मैं स्वदेशी का विरोधी हूं और देश-भक्त मुझे एक आंख नहीं भाते तब भी मैं ललित की सच्चाई, बेबाक अंदाज़ और सादगी पर मुग्ध हूं। उसकी रुचि मुझे भाती है। बहुत ।
सन्तोष कहने लगा- “पर आपकी तरह उसकी धाक नहीं बंध सकती। आप जब विदेशी कपड़े पहनकर बाहर निकलते होंगे तो कम पढ़े लिखे लोग डर कांप उठते होंगे और आपको नमस्कार कर के आकाश पर पहुंच जाते होंगे।”
मुझे हंसी आ गई, सन्तोष कुमार भी हंसने लगा।
उस दिन रात को मैं बेखबर सोया हुआ सपना देख रहा था कि किसी ने मुझे झंझोड़ा, मैं चाँक गया। आंखें खोलकर देखता हूं तो नेरा नौकर रामलाल
में लालटेन लिये खड़ा है।
उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही हैं, शरीर थर-थर कांप रहा है। मैंने घबराकर पूछा – “क्यों रामलाल क्या बात है, तुम कांप क्यों रहे हो?” रामलाल ने जवाब दिया- “बाबू, पुलिस ने सारा मकान घेर रखा है, कोई बात समझ में नहीं आती। मैं कोई चोर या बदमाश न था, पुलिस का नाम सुनकर घबरा गया। | मैंने दो-एक बेईमानियां जो छिपकर की थीं वे आंखों के सामने धूमने लगीं। मुझे पूरा विश्वास हो गया कि पुलिस मुझे गिरपतार करने आई
है।” पुलिस की हलचल सुनकर मेरे होश उड़े हुए थे। में हिम्मत करके नीचे आया। रामलाल बोला- “आज्ञा हो तो दो-चार हाथ दिखाकर पुलिस वालों को
जमीन पर लिटा दूं?”
मैंने कहा- सावधान! भूलकर भी ऐसा न करना, पुलिस से पंगा लेना अच्छा नहीं होता।” दरवाज़ा खोल दिया। दो-तीन पुलिस वालों के साथ सफेद कपड़े पहने बंगाली और आठ-दस
बगाली
सिपाही कमरे के अन्दर घुस आये।
बाबू ने जेब से एक बादामी कागज निकालकर मुझे दिखाते हुए कहा-“यह गिरफ्तारी-वारंट है, आपके यहां विद्रोहियों के गुप्त मीटिंग का अड्डा मुझ पर बिजली-सी गिर पड़ी। मैं समझा शायद मैं ही तिद्रोही हूं और मेरी गिरफ्तारी का वारंट है, मुझे पुलिस गिरफ्तार करने आई है। आह! अब
विद्रोही तुरन्त गिरफ्तार किया जाएगा।”
नहीं, अगर फांसी से बच गया तो काला पानी ज़रूर भेजा जाऊंगा। मैंने कांपते हुए कहा- “विद्रोही और वह भी मेरे मकान में? आप क्या कह रहे हैं। मैं सरकार से दगा नहीं करूंगा। इसी साल मुझे राय साहब का
मिला है, आपको भ्रम हुआ है।”
एक सार्जेण्ट ने त्योरी बदलकर कहा- हम काला आदमी नहीं हैं, गोरा आदमी कभी झूठ नहीं बोल सकता।” बंगाली बाबू ने जरा नाराम्जी में कहा- “पुलिस को भ्रम नहीं हो सकता, भ्रम अक्सर डॉक्टरों को हुआ करता है।”
मैंने पूछा- “विद्रोही का नाम क्या है?” कहा- “शरद कुमार।”
बंगाली है?”
हा।”
कहां का रहने वाला है?”
श्री रामपुर का।”
मेरे सिर से जैसे बाला-सी टल गई। नाम सुनते ही मेरे होंठों पर हंसी खेलने लगी। मैंने कहा- “महाशय, इस नाम का कोई आदमी मेरे घर में नहीं है।
“कोई और बंगाली आपके मकान में है?”
हां, सीधा-साध नौजवान है जो उमाशंकर को बंगला भाषा पढ़ाता है।”
उस सफ़ेद कपड़े वाले बंगाली ने कहा-“हां, उसकी ही तलाश है। उसका असली नाम शरद कुमार है। पुलिस महीनों से उसके पीछे परेशान है, हाथ
आता था।”
मैंने आश्चर्य से कहा- ‘वह तो जिला नदिया का रहने वाला है और आप कहते हैं कि अपराधी श्री रामपुर का है.” सब उसकी चाल है, वह श्री रामपुर का रहने वाला है। उसके पिता का नाम हृदयनाथ है जो एक जाने माने जमींदार हैं।”
मैंने फिर पूछा- “उस का क्या अपराध है?”
इंस्पेक्टर ने जवाब दिया- “विद्रोह, एक गुप्त संस्था से उसका संबंध है। बम बनाना, चोरी, डकैती, कत्ल, लूटमार यह उनकी देश सेवा है।” यह सुनकर मुझे हंसी आ गई। कहा- “आप एक सत्रह-अठारह साल के बंगाली लड़के को विद्रोही बना रहे हैं, यह भला कोई मानने की बात है। एक
आम लड़के की गिरफ्तारी के लिए इतने आदमी
चार सिपाही दरवाजे पर खड़े किए गये, घर की तलाशी शुरू हुई। बरामदे, कोठरी, बैठक, रसोईघर, यहां तक कि मैदान तक की जगह को हंढ़ डाला
लेकिन ललित का कहीं पता न था। बस उसके कमरे में एक कागज का टुकड़ा मिला; पढ़कर सब आश्चर्य से एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। उसमें लिखा हुआ था-
इंस्पेक्टर साहब नमस्ते।
में फिर भाग रहा हूँ। आएके पुलिस वाले समझ गये होंगे कि मैं कितना भयानक आदमी हूं, जरा बचकर रहियेगा।
भारत माता का छोटा सा सेवक
शरद
बंगाली बाबू ने अपने माथे पर हाथ मारकर कहा- “बना बनाया खेल बिगड़ गया, कमबख्त ने चक्मा दे दिया। महीनों की मेहनत पर पानी फिर गया।” पुलिस निराश होकर वापस चली गई। हम सब भी उमाशंकर के साथ ललित के लिए आंसू बहाने लगे। ललित से हम सबको बहुत ज़्यादा प्रेम था,
उसका यह काम देखकर मुझे आश्चर्य हुआ।
महाशय! मैं वहीं डॉक्टर हूं, मेरी डॉक्टरी बहुत अच्छी चल रही है, उमाशंकर मैट्रिक स कर चुका है, उसकी दशा दिन-ब दिन बदलती जा रही है। यह वही उमाशंकर है जो अपने हाथों गिलास में पानी भी नहीं डालता था, आज वही गरीबों की सेवा के लिए हर समय तैयार रहता है। ललित के बाद स्वयं सेवक की जीती-जागती तस्वीर मुझे उमाशंकर में दिखाई दी। एक दिन बैठे-बैठ मुझे ललित का ध्यान आ गया, आंखों में आसू भर आये। उसकी याद से पुराना प्रेम ताजा हो गया। इसी बीच उमाशंकर कमरे में आया। उसके हाथ में एक अंग्रेजी का अखबार था। उसका मुंह लाल हो रहा था, आंखें नाम थीं। उसने दर्द भरी आवाज में कहा- “ललित को आजीवन देश-निकाले का दंड दिया गया है। वह कातिल नहीं था, वह देश का सच्चा सेवक, आज़ादी का पुजारी, दयालु और सबसे प्रेम का बर्ताव करने वाला आदमी धा”।
ललित का मकसद कत्ल या लूटमार करना रहा हो या विद्रोह, इसके बारे में में कुछ नहीं जानता, मैं उसके साफ़ और सच बोलने वाले स्वभाव और उसकी राह सादगी का कायल हूं। मुझे उस पर पूरा विश्वास था।” उमाशंकर के शब्द सुनकर मेरा दिल दहल गया। वो रोने लगा। मैं भी ज्यादा सहन न कर सका, मै आंसू पोंछे। इसके बाद मैंने कहा- ‘उमाशंकर ललित को देखने के लिए दिल बेचैन है, वह कब तक वापस आयेगा।” उमाशंकर ने इसका कोई जवाब न दिया और दहाड़ें मार-मारकर रोने लगा। उसकी यह दशा देखकर मुझसे भी सहन न हो सका। मेरी हालत भी अलग हो गयी, दिल के टुकड़े-टुकड़े हो गये चिन्ता और गक्ये से सर
मिलाने और छटपटाने लगा।
र गुस्से से मन तिलमिलाने
सीख – इस कहानी में रबीन्द्रनाथ जी ने सच्चे देश भक्तों के साथ कैसा सलूक किया जाता है उसकी दुखद झलक दिखाई हैं. जब लोगों पर अंग्रेज़ी का भूत सवार था तो कई ऐसे जांबाज़ देश भक्त थे जो अपने देश को गुलामी की बेडियों से आज़ाद कराने के लिए जी जान से कोशिश कर रहे थे और अवसर अंत में उन्हें विद्रोही का नाम दे दिया जाता और कड़ी सज़ा देकर उनके जीवन को खत्म कर दिया जाता था. ललित ने अपने अच्छे स्वभाव और सादगी से सबका दिल जीत लिया था. उसकी संगत में उमाशंकर में अच्छे बदलाव होने लगे थे जो दिखाता है कि ललित एक अच्छा इंसान था. उसने उमाशंकर को अंग्रेज़ी के बजाय बैंगला सिखाया जो दिखाता है कि ललित को अपने देश और उसकी संस्कृति से कितना लगाव था और वो सचमुच एक देश भक्त था. एक बात और, जिस इंसान का दिल किसी गरीब की मजबूरी को देखकर बेचैन हो जाए वो बुरा कैसे हो सकता है?